पारिस्थितिक साक्ष्य Circumstancial evidence)
जब किसी तथ्य को साबित करने के लिए प्रत्यक्ष साक्ष्य (Direct evidence) उपलब्ध नहीं होता तो ऐसी अवस्था में कुछ परिस्थितियों का सहारा लिया जाता है। ये परिस्थितियों घटना के इर्द-गिर्द घूमने वाले तथ्य या सबूत होती है जिनका अवलोकन करने से यह पता चलता है कि यह घटना असल में घटी। इसी को परिस्थितिजन्य साक्ष्य या सुसंगत तथ्यों का साक्ष्य कहते हैं। ऐसे तथ्य, तथ्यों की कड़ियो से जुड़कर एक मजबूत जंजीर का निर्माण करते हैं अगर उस जंजीर की एक कड़ी भी टूट जाए तो वह साक्ष्य नष्ट हो जाएगा।
पारिस्थितिक साक्ष्य के उदाहरण :- अभियुक्त का आशय, धमकियाँ, उसका प्रयत्न या तैयारियाँ उसके द्वारा साक्ष्य का गढ़ा जाना या नष्ट किया जाना, चोरी के अपराध में सम्पत्ति का उसके पास पाया जाना, उसके पद, हैसियत या चरित्र से ये सभी परिस्थितिजन्य साक्ष्य की कड़ियाँ होती है।
यहाँ कुछ और पारिस्थितिक साक्ष्य (Circumstantial Evidence) के उदाहरण दिए गए हैं:
1. मृतक का मोबाइल फोन लोकेशन:
अगर हत्या के समय मृतक का मोबाइल फोन किसी खास स्थान पर था, जहां आरोपी भी मौजूद था, तो मोबाइल की लोकेशन एक पारिस्थितिक साक्ष्य होगी, जिससे यह समझा जा सकता है कि आरोपी और मृतक उसी स्थान पर थे।
2. खून लगे कपड़े:
अगर आरोपी के कपड़ों पर खून के दाग़ मिले हैं, लेकिन कोई सीधे यह नहीं देख पाया कि उसने हमला किया, तो खून लगे कपड़े घटना से जुड़ा पारिस्थितिक साक्ष्य होंगे।
3. शिकायतकर्ता का आवाज़ रिकॉर्डिंग में आवाज़:
अगर कोई व्यक्ति फोन पर धमकी देता है और उसका रिकॉर्डिंग मिलती है, लेकिन उसे धमकी देते हुए कोई सीधे नहीं देख पाया, तो वह रिकॉर्डिंग पारिस्थितिक साक्ष्य होगी।
4. गवाहों का बयान:
जब गवाह यह नहीं कह पाते कि उन्होंने आरोपी को अपराध करते हुए देखा, परन्तु वे कुछ ऐसी बातें बताते हैं जो उस घटना के आसपास की परिस्थितियों को दर्शाती हैं, तो उनका बयान पारिस्थितिक साक्ष्य माना जा सकता है।
5. कार की स्थिति:
अगर किसी दुर्घटना में कार का ब्रेक फेल हो जाना साबित हो जाए और वह कार दुर्घटना के कारणों में से एक हो, तो ब्रेक फेल होना भी पारिस्थितिक साक्ष्य होगा।
ये सारे साक्ष्य सीधे तौर पर अपराध या घटना को साबित नहीं करते, परंतु परिस्थिति और सबूतों के संयोजन से एक मजबूत केस बनाते हैं।
केस- उमेद भाई बनाम गुजरात राज्य (1978)- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब कोई मामला केवल परिस्थितियों के साक्ष्य पर निर्भर हो तो यह जरूरी है कि जो भी परिस्थितियों न्यायालय के सामने लायी गयी है उनकी दिशा केवल अभियुक्त को दोषी साबित करने की तरफ होनी चाहिए और कोई भी ऐसी स्थिति ऐसी नहीं होनी चाहिए जो अभियुक्त के दोषी होने से मेल ना खाती हो। परिस्थितियों के साक्ष्य पर निर्भर होने वाले मामले में भी न्यायालय को कुल परिस्थितियों का प्रभाव देखना होता है। परिस्थितियों की जंजीर की एक भी कड़ी टूट जाने पर अभियोजन की सारी बात नष्ट हो जाती है।
केस- हरदयाल बनाम स्टेट ऑफ़ यूपी (1976)- इस मामले में अभियुक्त एक क्रूर व्यक्ति था। वह अपनी पत्नी को पीटता था जिस कारण वह मायके आ गई। उसके पिता ने उसे भेजने से इंकार कर दिया तब वह यह कहते हुए ससुराल से बाहर निकला कि वह उन लोगो को देख लेगा कुछ समय बाद लोगों ने उसे अपनी पत्नी के भाई के 10 साल के बच्चे को ले जाते देखा बच्चा घर में अकेला था। उस दिन बच्चे की खबर नहीं मिली तब बच्चे के पिता ने अभियुक्त को पकड़ लिया तब अभियुक्त ने कहा कि उसे छोड़ दो वह बच्चे को लाकर दे देगा। यह कहकर वह भाग गया कुछ दिनों बाद बच्चे की लाश कुँए में मिली। न्यायालय ने उसे मृत्युदंड दिया। इस मामले में प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था लेकिन परिस्थितिजन्य साक्ष्य इतना मजबूत था कि मृत्युदंड के लिए काफी था।
केस- धनंजय चटर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1994)- इस मामले में चौदह वर्षीय मृतका अपने माता-पिता और छोटे भाई के साथ रहती थी। अभियुक्त उस बिल्डिंग का सिक्योरिटी गार्ड था। वह उससे आते जाते छेड़छाड़ करता था। लड़की ने इसकी शिकायत अपने पिता से कर दी। उसे सिक्योरिटी ऑफिस ने हटा दिया गया। एक दिन लड़की घर पर अकेली थी जिसकी जानकारी अभियुक्त को थी। वह लिफ्ट से आया तो उसे आते हुए लिफ्टमैन देख लिया उसने लड़की का बलात्कार किया। लिफ्ट से ही वह वापस भागा और यह भी लिफ्टमैन ने देखा। लड़की की माँ आई और उसने पुलिस को फोन किया पुलिस ने लड़की की मुट्ठी से बटन बरामद किया और नाखूनों में मानव रक्त मिला और बाल भी पाए गए। खून और बाल का डी एन ए कराया जो अभियुक्त के थे और अभियुक्त की शर्ट भी बरामद हुई और शर्ट पर वैसे ही अन्य बटन भी थे। उच्चतम न्यायालय ने उसे मृत्युदंड दिया।