भारतीय न्याय संहिता में साधारण अपवाद धारा (14-44)

General Exceptions

भारतीय न्याय संहिता का अध्याय 3 अनेक प्रतिरक्षाओं से संबंधित है, जिनके आधार पर कोई अभियुक्त संहिता में बचाव ले सकता है। यह अध्याय धारा 14-44 तक दिया गया है जो अन्य धाराओं में दिए गए अपराध की परिभाषाओं को नियंत्रित करता है।

इस अध्याय में दो तरह की प्रतिरक्षाएं (Defences) दी गई हैं-

1) क्षम्य (Excusable) – धारा 14-33

2) युक्तिसंगत (Justificable) – धारा 34-44

धारा 14- विधि द्वारा आबद्ध या तथ्य की भूल के कारण अपने आपको विधि द्वारा आबद्ध होने का विश्वास करने वाले व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य:– कोई बात अपराध नहीं है जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है जो उसे करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध हो या जो तथ्य की भूल के कारण ना कि विधि की भूल के कारण सदभापूर्वक विश्वास करता है कि वह उसे करने के लिए सदभापूर्वक विश्वास करता है कि वह उसे करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध है।

उदाहरण– विधि के आदेशों के अनुरूप अपने वरिष्ठ अधिकारी के आदेश से एक सैनिक भीड़ पर गोली चलाता है। A ने कोई अपराध नहीं किया।

उदाहरण– न्यायालय का अधिकारी A, M को गिरफ्तार करने के लिए उस न्यायालय द्वारा आदेश करने पर और जांच करने के बाद यह विश्वास करके कि Y ही M है, Y को गिरफ्तार कर लेता है। A ने कोई अपराध नहीं किया।

इस धारा की आवश्यक शर्तें (Essentials)-

1) एक व्यक्ति द्वारा किया गया कोई कार्य जिसे करने के लिए वह विधि द्वारा बाध्य है।

2) एक व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य जिसे करने के लिए वह विधि द्वारा अपने आपको बाध्य समझता है।

3) यह विश्वास तथ्य की भूल के कारण होना चाहिए ना की विधि की भूल के कारण दूसरे शब्दों में भूल तथ्य से संबंधित होनी चाहिए विधि से नहीं।

4) उस व्यक्ति ने सद्भावपूर्वक विश्वास किया हो।

केस- गोपालिया कलिय्या (1923)- इस मामले में एक पुलिस अधिकारी ने शिकायतकर्ता को एक वारंट के तहत इस विश्वास से कैद कर लिया कि उसे उसी व्यक्ति को कैद करना है शिकायतकर्ता ने उसके खिलाफ सदोष परिरोध के लिए प्रक्रिया शुरू कर दी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पुलिस अधिकारी दोषी नहीं है बल्कि उसे इस धारा का बचाव मिलेगा।
केस- आर बनाम प्रिंस (1875)- इस मामले में अभियुक्त ने एक अविवाहित लड़की जो 16 साल से कम उम्र की थी उसके पिता के कब्जे से उसकी इच्छा के खिलाफ ले जाता है। अभियुक्त ने विश्वास किया कि लड़की 16 साल से ज्यादा आयु की थी। न्यायालय ने उसे दोषी ठहराया क्योंकि उसने एक दोषपूर्ण और अनैतिक कार्य को करने की इच्छा की।

धारा 15- न्यायिक रूप से कार्य करते हुए न्यायाधीश का कार्य– इस धारा के अनुसार कोई बात अपराध नहीं है जो न्यायिक कार्य करते हुए न्यायाधीश द्वारा किसी ऐसी शक्ति के प्रयोग में की जाती है जिसके बारे में उसे सदभावपूर्वक विश्वास है कि वह उसे विधि या कानून द्वारा दी गई है। साधारण शब्दो मे यह धारा एक जज को उस समय सुरक्षा देती है जबकि वह न्यायिक कार्य कर रहा हो।

केस- मेघराज बनाम जाकिर– इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि कोई व्यक्ति न्यायिक कार्य करते हुए किसी काम को करने के लिए अपने दायित्व का पालन करते हुए अपने क्षेत्राधिकार में आता है तो इसलिए वह इस धारा में प्रतिरक्षा लेने का हकदार हैं।

धारा 16- न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य :- कोई बात जो न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसार की जाए अगर वह निर्णय या आदेश के लागू रहते की जाए तो वह अपराध नहीं है चाहे उस न्यायालय को ऐसा निर्णय या आदेश देने की अधिकारिता ना भी रही हो लेकिन यह तब तक जब कार्य करने वाला व्यक्ति सदभावपूर्वक विश्वास करता हो कि उस न्यायालय को वैसी अधिकारिता थी।

उदाहरण – अगर किसी व्यक्ति को फांसी की सजा होती है तो फांसी देने वाले जल्लाद को इस धारा में प्रतिरक्षा मिलेगी।

धारा 17विधि द्वारा न्यायानुमत या तथ्य की भूल से अपने को विधि द्वारा न्यायानुमत होने का विश्वास करने वाले व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य- कोई बात अपराध नहीं है, जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाए जो उसे करने के लिए विधि द्वारा न्यायानुमत हो या तथ्य को भूल के कारण न कि विधि की भूल के कारण सदभावपूर्वक विश्वास करता है कि वह उसे करने के लिए विधि द्वारा न्यायानुमत है।

उदाहरण – A, Y को ऐसा कार्य करते हुए देखता है जो A को हत्या लगता है। A सदभावपूर्वक अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए Y को अधिकारियों के सामने ले जाने के लिए गिरफ्तार कर लेता है। A ने कोई अपराध नहीं किया चाहे असल बात यह निकले कि Y आत्मरक्षा में कार्य कर रहा था।

इस धारा की आवश्यक शर्तें (Essentials)-

1) तथ्य की भूल में एक व्यक्ति द्वारा किया गया कोई कार्य।

2) भूल तथ्य से संबंधित होनी चाहिए विधि से नहीं।

3) भूल सद्भावना में की होनी चाहिए।

4) भूल करने वाला या तो कानून के द्वारा न्यायानुमत होना चाहिए या उसे करने में अपने आपको विधि द्वारा न्यायानुमत होने का विश्वास रखता हो।
केस- जोसेफ थोम्मन बनाम जोसफ एंटोनी (1957)- इस मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि पड़ोसी की जमीन पर बढ़ते हुए पेड़ के उस हिस्से को काटने का हकदार जमीन का मालिक है जो उसकी अपनी जमीन के ऊपर लटक रहा है इसीलिए ऐसी शाखओ को काटना रिष्टि का अपराध नहीं माना जाएगा।

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