मनुस्मृति
– स्मृतियों में मनुस्मृति का सर्वोच्च स्थान है। यह खेद की बात है कि हम यह नहीं जानते हैं कि मनुस्मृति के संकलनकर्ता और महान ऋषि मनु कौन थे। हम यह जानते हैं कि मनु को कभी उन्हें बुद्ध मनु और कभी उन्हें आदि-मानव कहा गया है। हो सकता है, मनु एक काल्पनिक नाम ही रहा हो, जिसके नाम पर या जिसका हवाला देकर हिन्दू इतिहास में समय-समय पर विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन होता रहा है।
कुछ भी हो, मनु का नाम सदा से ही असीम श्रद्ध और आदर से लिया जाता रहा है और मानव इतिहास में उनका नाम आगे भी श्रद्धा और आदर से लिया जाता रहेगा।
मनुस्मृति में 12 अध्याय और 2694 श्लोक हैं। मनुस्मृति के संकलन की तिथि ईसा से पूर्व 200 वां आंकी जाती है। यद्यपि धर्मसूत्रों में विधि की अनेक शाखाओं की विवेचना की गयी है, परन्तु वे विधि के सार ग्रन्थ नहीं है। मनुस्मृति ने विधि के सारग्रन्थ की आवश्यकता की पूर्ति की है। स्पष्ट और सरल रूप से समझ में आने वाली भाषा में मनुस्मृति विधि के समस्त नियमों को एक क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप में उपलब्ध कराती है। यह हिन्दू विधि का सर्वत्र प्राधिकार पूर्ण और मान्य ग्रन्थ है। मनुस्मृति भारतीय इतिहास के आकाश में एक बहुत चमकता और उज्जवल सितारा है। विधिक नियम, संस्था और सिद्धान्तों का यह बहुत बड़ा आगार है।
मनुस्मृति में प्रतिपादित विधिक सिद्धान्त (Juristic formulation)-
मनुस्मृति अनेक विधिक सिध्दांतो का प्रतिपादन करती है। उनमें से कुछ प्रधान सिद्धान्तों की विवेचना यहां की जा रही है। उनमें से कुछ प्रधान सिद्धान्तों की विवेचना यहां की जा रही है। हिन्दू विधिक इतिहास में सदैव से ही, मनुस्मृति की रचना के समय भी मान्य सिद्धान्त था कि ‘विधि राजाओं का राजा है” मनुस्मृति भी यही सिद्धान्त प्रतिपादित करती है कि राजा विधि के अधीन है, राजा विधि बनाने वाला नहीं बल्कि प्रतिपादित करने वाला है। परन्तु मनु इस सिद्धान्त में यह और जोड़ते हैं कि राजा को शासन करने और विधि को प्रतिपादित करने की दैवी शक्ति प्राप्त है। मनुस्मृति की रचना ब्राह्मण-धर्म के पुनरुत्थान के युग में हुई है। ब्राह्मणों ने राजा का समर्थन प्राप्त किया और राजा का साथ दिया। राजा की स्थिति सुदृढ़ करने के लिये मनु ने कहा कि राजा को शासन करने के लिए ईश्वर ने भेजा है। हिन्दू विधि को हम सदैव से दैवी विधि मानते आये हैं। इस पृष्ठभूमि में इस प्रलोभन में आ जाना सहज था कि जो दैवी विधि प्रतिपादित करता है, उसे स्वयं दैवी शक्ति प्राप्त है। राजा की स्थिति सुदृढ़ करने की दशा में दूसरा सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। राजा की दाण्डिक शक्ति के सन्दर्भ में मनु ने कहा है कि राजा अपनी दण्ड शक्ति द्वारा शासन करता है। मनु के अनुसार दण्ड ही समस्त समाज में सन्तुलन स्थापित करता है और व्यक्ति को सुरक्षा देता है। दण्ड विधि का दूसरा और पूरक नाम है। विधि को लागू करने के लिये, शासन करने के लिये, अपराधियों को दण्ड देने के लिये, दण्ड राजा की लौकिक शक्ति का अंग है।
मनुस्मृति का एक महत्वपूर्ण अंग यह है कि एक ओर तो राजा की महानता और शक्ति का पक्ष लिया गया है, दूसरी ओर सामाजिक व्यवस्था में प्रथा और रूढ़ि के स्थान की अवहेलना नहीं की गयी है। मनु का कहना है कि अर्वाचीन प्रथा और रूढ़ि का पालन करना सबके लिये अनिवार्य है। उनका आदेश है कि किसी भी विवाद पर निर्णय देते समय सम्राट को प्रादेशिक, जातीय, श्रेणीय या कौटुम्बिक रूढ़ि को लागू करना चाहिये। धर्मशास्त्रों में वर्णित विधि के अठारह विषयों के सम्बन्ध में कोई विवाद उठने पर राजा को दैवी विधि और रूढ़ि लागू करके निर्णय देना चाहिये। मनु ने रूढ़ि को प्रमुख स्थान दिया है, यद्यपि उनके टीकाकारों के बीच इस बारे बारे में मतभेद है कि दैवी विधि के प्रतिकूल रूढ़ि मान्य है या नहीं।
ब्राह्मण-धर्म-पुनरुत्थान (Revival) के प्रवर्तक होने के नाते, मनु ने कट्टरपंथी विचार और सिद्धान्तों का प्रवर्तन किया है। स्त्री और शूद्रों के प्रति उनके विचार कठोर थे। समाज में ब्राह्मणों को वे प्रमुख स्थान देते हैं, यहां तक कि उनके अनुसार ब्राह्मण की स्वेच्छा से हत्या करने वाले के लिये कोई भी प्रायश्चित पर्याप्त नहीं है। ब्रह्म हत्या के पाप से कोई व्यक्ति मुक्त हो ही नहीं सकता है। यदि शूद्र ब्राह्मण-कन्या से विवाह कर ले तो मृत्यु के अतिरिक्त कोई अन्य दण्ड उसके लिये नहीं है।
मनुस्मृति की कई टिकायें है उनमें से महत्वपूर्ण हैं:-मानव-मुक्तावली,मनुभाष्य और मनु टीका।