:-चूंकि मुस्लिम विवाह सारतः एक संविदा है, इसलिये वह हिन्दू विवाह से भिन्न होता है।
:-मूल हिन्दू विधि में विवाह एक संस्कार माना जाता था, जिसे बड़ा धार्मिक महत्व दिया गया है। मूल हिन्दू विधि के अन्तर्गत विवाह मांस का मांस से और अस्थि का अस्थि से संयोग माना जाता है, और स्त्री पति की अद्धांगिनी समझी जाती है। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 7 यह उपबन्धित करती है कि विवाह यदि सप्तपदी की प्रथा के अन्तर्गत होता है तो विवाह तब तक पूर्ण नहीं माना जाएगा जब तक कि पवित्र अग्नि के समक्ष सप्तपदी (seven steps) लगाने की औपचारिकता न पूरी हो जाय।
:-इसके विपरीत विधिक दृष्टि से, मुस्लिम विवाह संस्कार नहीं है, बल्कि एक व्यावहारिक संविदा है, यद्यपि सामान्यतया ‘कुरान’ को कुछ आयतें पढ़कर यह रस्म अदा की जाती है। मुस्लिम विवाह संविदा माना जाता है जो प्रस्ताव और स्वीकृति से किया और तोड़ा जा सकता है।
:-इस प्रकार –
1. मुस्लिम विवाह एक व्यावहारिक संविदा है जबकि प्राचीन हिन्दू विधि में विवाह एक संस्कार है। आधुनिक हिन्दू विधि (हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955) के अन्तर्गत विवाह का स्वरूप न तो संस्कार रह गया है और न यह संविदा का ही स्वरूप प्राप्त कर सका है।
2. हिन्दू विवाह और मुस्लिम विवाह में एक अन्तर यह है कि हिन्दू विवाह में प्रतिफल (मेहर) जैसी कोई चीज नहीं होती है, जबकि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत पति द्वारा पत्नी को मेहर देना विवाह की एक आवश्यक और अन्तर्निहित शर्त होती है।
3. मुस्लिम विधि के अनुसार कोई स्त्री विवाह द्वारा अपने अस्तित्व को पति के अस्तित्व में नहीं मिला देती। वह विवाह के बाद भी अपनी पृथक विधिक स्थिति बनाये रखती है। हिन्दू विधि के अन्तर्गत विवाह के पश्चात् पत्नी का गोत्र परिवर्तित हो जाता है और वह पिता के गोत्र से पति के गोत्र में संपरिवर्तित हो जाती है।
4. प्राचीन हिन्दू विवाह पति और पत्नी के बीच एक ऐसा सम्बन्ध स्थापित करता था जिसे तोड़ा नहीं जा सकता था। परन्तु अब सन् 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 ने कुछ आधारों पर पति और पत्नी दोनों को विवाह-विच्छेद का अधिकार दे दिया है। मुस्लिम विधि के अन्तर्गत विवाह मृत्यु अथवा विवाह विच्छेद से समाप्त हो जाता है।
5. मुस्लिम विधि के अन्तर्गत पति एक साथ अधिक से अधिक चार पत्नियाँ रख सकता है। प्राचीन हिन्दू विधि के अन्तर्गत एक हिन्दू एक से अधिक पत्नियाँ रख सकता था। उसके द्वारा पत्नियों के रखने की संख्या पर कोई कानूनी सीमा नहीं थी। परन्तु सन् 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 5 बहुविवाह का निषेध करती है।