1. परिचय:-मुस्लिम विधि निम्नलिखित व्यक्तियों पर लागू होती है-
(1) जन्मजात मुसलमानों पर और
(2) उन व्यक्तियों पर जो धर्म परिवर्तन द्वारा मुसलमान बने हैं।
:-यहां हमारा उन्हीं लोगों से तात्पर्य है जो धर्म परिवर्तन से मुसलमान हो गये हैं। इस ” धर्म परिवर्तन में अपने पूर्व धर्म का इस्लाम द्वारा प्रतिस्थापन (Substitution) उपलक्षित है।”
:-धर्म परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्तियों के सम्बन्ध में यह समझा जाता है कि धर्म परिवर्तन के पूर्व के धर्म को इस्लाम धर्म ने प्रतिस्थापित कर दिया और इस्लामी विधि उन पर लागू हो गई है। यह जरूरी है कि ऐसे व्यक्ति इस्लाम धर्म में यथारीति आस्था प्रकट करे। परन्तु यह ध्यान रहे कि न्यायालय किसी को उस व्यक्तिगत विधि से बचने के लिये, जो उस पर बन्धनकारी हो, इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बहाने विधि के साथ कपट नहीं करने देगा।
:-स्किनर बनाम आई जार्ज स्किनर से हेलेन स्किनर का ईसाई विधि के अनुसार विवाह सम्पन्न हुआ था। किन्तु जार्ज स्किनर की मृत्यु हेलेन को जिन्दगी में हो गई तब हेलेन ने जॉन टॉमस के साथ, जिसको ईसाई विधि से विवाहित पत्नी जीवित थी, समागम किया। इस संयोग को वैध बनाने के लिये हेलेन और जॉन दोनों ने धर्म परिवर्तन करके इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया। प्रिवी कौंसिल ने निर्णय दिया कि यह धर्म परिवर्तन असद्भावपूर्ण था और उसका प्रयोजन विधि पर कपट करना था। हेलेन और जॉन ने मुस्लिम धर्म परिवर्तन इसलिये किया था ताकि उनका अवैध सम्बन्ध वैध हो सके, न कि इस कारणवश कि उन्हें मुस्लिम धर्म में आस्था थी। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि धर्म परिवर्तन को सद्भावपूर्ण होना चाहिये।
:-नरंतर्कथ बनाम पाराखल’ में एक मोपला स्त्री ने एक आदमी से विवाह किया, जिसने बाद में अहमदिया धर्म ग्रहण कर लिया। चूंकि मोपला कट्टर मुसलमान होते हैं, अतः यह धर्म परिवर्तन अधिकांश मुसलमानों द्वारा धर्मत्याग समझा गया और इस कारण उस स्त्री ने समझा कि विवाह विच्छेद हो गया है। जब उसी स्त्री ने दूसरा विवाह कर लिया तो द्विविवाह (bigamy) के आधार पर उसका अभियोजन किया गया। मद्रास उच्च न्यायालय ने यह निर्णय किया कि चूंकि अहमदिया लोग इस्लाम के मूल सिद्धान्तों में विश्वास करते हैं, इसलिये वे मुसलमान हैं, अतः अहमदिया धर्म ग्रहण करना धर्मत्याग नहीं है और महिला द्विविवाह की दोषी है।
:-‘जीवन खाँ बनाम हबीब के बाद में लाहौर उच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि शिया समुदाय के लोग पहले तीनों खलीफाओं का बहिष्कार करते हैं। किन्तु ये लोग एक अल्लाह और मोहम्मद साहब की पैगम्बरी में विश्वास करते हैं इसलिए वे मुसलमान हैं।
मुस्लिम विधि के अनुसार पति-पत्नी में से यदि कोई एक धर्म परिवर्तन करके इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेता है तो इस्लाम धर्म ग्रहण करने के सम्बन्ध में दो विभिन्न परिस्थितियों पर विचार करना होगा, जबकि ऐसा धर्म परिवर्तन-
(1) ऐसे देश में किया जाय जो मुस्लिम-विधि के अधीन हो, और
(2) ऐसे देश में किया जाय आप जिसमें मुस्लिम विधि देश की विधि न हो।
:-पहली स्थिति में जब दोनों पक्षकारों में से एक पक्षकार इस्लाम धर्म ग्रहण कर ले तो उसे दूसरे पक्षकार से इस्लाम धर्म ग्रहण करके प्रस्ताव करना चाहिये और दूसरे पक्षकार के इन्कार करने पर विवाह विच्छेद किया जा सकता है। दूसरी स्थिति में पति-पत्नी में किसी एक के द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बाद तीन माम की अवधि बीतने के बाद विवाह स्वतः विच्छिन्न हो जाता है। परन्तु भारत में यह विधि नहीं है। भारत में दम्पत्ति में से जो इस्लाम धर्म ग्रहण करे, वह विवाह विच्छेद या न्यायालय की घोषणा के लिये यह बाद नहीं दायर कर सकता है कि दम्पति में से जिसने धर्म ग्रहण करने से इन्कार किया है उसके विरुद्ध विवाह का विच्छेद हो गया (रोबासा खानम बनाम खुदादाद बोमन जी ) ।
2. धर्म-परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म-ग्रहण और दाम्पत्य- अधिकार
(1) किसी हिन्दू पत्नी के धर्म परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेने से उसके पति के साथ उसके विवाह का स्वतः विच्छेद नहीं हो जाता। वह अपने पति के जीवनकाल में किसी अन्य पुरुष से विवाह की वैध संविदा नहीं कर सकती। यदि वह इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बाद किसी भी विवाह की रस्म अदा करती है तो वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत द्विविवाह की दोषी होगी। बम्बई सरकार बनाम डगा’ के मुकदमे में यह विनिश्चय किया गया कि हिन्दू पत्नी के द्वारा अपने पति के जीवन काल में इस्लाम धर्म ग्रहण करके किसी मुसलमान से विवाह करने पर, हिन्दू पति से स्वतः हो विवाह विच्छेद नहीं होगा। लेकिन हिन्दू पति की मृत्यु पर वह मुसलमान पुरुष से विवाह करने के लिये स्वतन्त्र है। अहमद बक्स बनाम श्रीमती नाथू‘ ।
(2) ईसाई स्त्री से विवाहित एक ईसाई पुरुष ने अपने को मुसलमान घोषित करके एक अन्य स्त्री के साथ विवाह की रस्म अदा की। प्रिवी काउन्सिल उच्च न्यायालय से इस विषय में सहमत रही कि विवाह की मान्यता सन्देहपूर्ण है (स्किनर बनाम आर्ड)
(3) जान जिबन बनाम अविनास के बाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने निर्णय किया कि जब किसी भारतीय ईसाई लड़की से विवाहित भारत का अधिवासी कोई भारतीय ईसाई इस्लाम धर्म ग्रहण कर ले तो वह मुसलमान स्त्री से विवाह की वैध संविदा कर सकता है, चाहे ईसाई पत्नी से पहला विवाह अभी कायम क्यों न हो।
(4) एक मुसलमान ने एक ईसाई स्त्री से ईसाई विधि के अनुसार विवाह किया और बाद में पत्नी ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया। बाद में पति ने तलाक द्वारा उससे विवाह विच्छेद किया। बम्बई के उच्च न्यायालय ने यह निर्णय किया कि पत्नी के ईसाई धर्म त्याग देने पर अधिवास विधि के अन्तर्गत उस पर उसके धर्म की विधि लागू होगी। परिणामस्वरूप, विवाह विच्छेद मान्य था (खम्बट्टा बनाम खम्बट्टा )।
धर्म परिवर्तन को लेकर उच्चतम न्यायालय ने कुछ महत्वपूर्ण निर्णय दिये हैं, जिससे यह सिद्धान्त निर्धारित किया गया है कि यदि कोई हिन्दू पुरुष जिसका विवाह हिन्दू रीति रिवाज के तहत हो चुका है इस्लाम धर्म को इस आशय के साथ ग्रहण करता है ताकि वह दूसरा विवाह कर सके तब ऐसा कार्य धर्म परिवर्तन नहीं माना जायेगा, तथा उसका दूसरा विवाह शून्य घोषित कर दिया जायेगा और उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के तहत दण्डित किया जायेगा।
:-सरला मुदगल बनाम भारत संघ’ के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि इस्लाम धर्म स्वीकार करने के पश्चात् ऐसा हिन्दू पति जिसका पहला विवाह विधिपूर्ण तरीके से विच्छेद नहीं हुआ है, दूसरा विवाह नहीं कर सकता। उसका दूसरा विवाह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत शून्य कर दिया जायेगा तथा उसे इसी विधि के अन्तर्गत दण्डित भी किया जायेगा।
:-इस बाद में चार याचिकायें शामिल थी जिसमें पहली याचिका के तथ्य इस प्रकार थे-
सन् 1978 में मौना माथुर का विवाह जितेन्द्र माथुर से हुआ और उनके तीन बच्चे पैदा हुये, 1998 में अधिकाकर्ता को यह सुनकर गहरा धक्का लगा कि उसके पति ने किसी सुनीता नरूला (फातिमा) नाम की लड़की से दूसरा विवाह कर लिया है। यह विवाह दोनों ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने के पश्चात् किया। याचिकाकर्ता के अनुसार उसके पति द्वारा धर्म परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार करना केवल दूसरा विवाह करने तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के प्रावधान से बचने के लिए किया गया है। दूसरी तरफ जितेन्द्र माथुर का कहना था कि इस्लाम धर्म स्वीकार करने के पश्चात् उसे चार पत्नियाँ रखने का अधिकार है, भले ही उसकी पहली पत्नी हिन्दू ही क्यों न हो।
:-इसी प्रकार लिली थॉमस बनाम भारत संघ के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि कोई हिन्दू पत्नी अपने पति के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत द्विविवाह की शिकायत इस आधार पर करती है कि पहले विवाह के अस्तित्व में रहते हुये उसके पति ने धर्म परिवर्तन कर दूसरा विवाह कर लिया है, तब द्विविवाह का यह अपराध हिन्दू अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार जाँचा एवम् तय किया जायेगा। चूंकि द्विविवाह हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 17 के अन्तर्गत प्रतिबन्धित किया गया है और इसे अपराध माना गया है, इस कारण ऐसा प्रत्येक विवाह जो कि पहले विवाह के अस्तित्व में रहते हुये किया गया है, भले ही धर्म परिवर्तन के बाद ही क्यों न किया गया हो, हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 17 तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत अपराध माना जायेगा।
:-धर्म परिवर्तन दो हिन्दू व्यक्तियों के बीच हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत किये गये विवाह को विच्छेद नहीं करता। धर्म परिवर्तन एक व्यक्ति के सिविल दायित्वों एवम् वैवाहिक कड़ी को समाप्त नहीं करता परन्तु इसके आधार पर हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 के अनुसार तलाक तथा धारा 10 के अनुसार न्यायिक पृथक्करण का आधार हो सकता है।
3. धर्म-परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण और दाय के अधिकार :–
:-विरोधी रूढ़ि के अभाव में धर्म-परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति की सम्पदा का उत्तराधिकार मुस्लिम विधि से शासित होता है। चेदाम्बरम् बनाम मान्यीन मे के बाद में यह निर्णय हुआ कि जब एक हिन्दू ने, जिसके हिन्दू पत्नी और बच्चे थे, इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया हो, मुस्लिम महिला से विवाह कर लिया हो और उससे बच्चे हो गये हों तब ऐसे व्यक्ति के मर जाने पर उसकी सम्पत्ति उसकी मुसलमान पत्नी और बच्चों को मिलेगी। यह इसलिये क्योंकि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत किसी मुसलमान की सम्पत्ति का कोई हिन्दू उत्तराधिकारी नहीं हो सकता।
4. धर्म-परिवर्तन करने वाले व्यक्ति और उसकी मूल विधियों का कायम रहना:-
सन् 1937 के शरिअत अधिनियम के पहले शरिअत अधिनियम, 1937 के पारित होने के पूर्व – धर्म परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति अपनी मूल विधियों और आचारों को अपने साथ ला सकते थे और मुसलमान हो जाने के बाद भी उनसे शासित हो सकते थे, और यह निर्णीत किया जा चुका है कि यद्यपि निम्नलिखित लोग अपने प्रति लागू इस्लाम धर्म में आस्था प्रकट करते हैं, तथापि उन पर दाय और उत्तराधिकार के मामले में हिन्दू विधि लागू होती है-
(1) खोजा लोग,
(2) कच्छी मेमन, हलई मेनन
(3) गुजरात के सुनी बोहरे, और
(4) भड़ौच के मौला सलाम गिरिया लोग।
:-सन् 1937 के शरिअत अधिनियम के पारित होने के बाद की विधि-शरिअत अधिनियम ने खोजा और कच्छी मेमन लोगों के उत्तराधिकार की रूढ़िगत विधि को निरस्त कर दिया है और उन्हें मुस्लिम विधि के अधीन कर दिया है।
:-सन् 1920 और 1938 के कच्छी मेमन अधिनियम- कच्छी मेमन अधिनियम, 1920 (संख्या 47 ) की धारा 2 और कच्छी मेमन (संशोधन) अधिनियम, 1923 ( संख्या 34 ) यह उपबन्ध करते थे कि कोई व्यक्ति जो विहित प्राधिकारी को इस प्रकार संतुष्ट कर दे-
(क) कि यह एक कच्छी ‘मेमन’ है और वही व्यक्ति है जिसका होना वह निरूपित होता है,
(ख) कि वह भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 11 के अर्थ में संविदा करने के लिये सक्षम है, और
(ग) कि वह भारत में निवास करता है।
तो विहित प्राधिकारी के समक्ष प्रस्तुत की गयी ऐसी घोषणा के द्वारा वह यह घोषित कर सकता है कि वह अधिनियम का लाभ उठाना चाहता है और तदुपरान्त वह उसके सब अवयस्क बच्चे और उसके वंशज उत्तराधिकार और दाय सम्बन्धी मामलों में मुस्लिम विधि से शसित होंगे।
कच्छी मेमन अधिनियम, 1920 कच्छी मेमन अधिनियम, 1938 द्वारा निरस्त कर दिया गया है। अब कच्छी मेमन अधिनियम, 1938 के अन्तर्गत कच्छी मेमन लोग उत्तराधिकार और दाय सम्बन्धी सभी मामलों में मुस्लिम विधि से शासित होते हैं।
:-हलई मेमन लोग – बम्बई के अधिसेवी हलई मेमन लोग भी सब विषयों में मुस्लिम विधि से शासित होते हैं।
:-गुजरात के सुन्नी बोहरे और भड़ौच के मौला सलाम गिरिया- गुजरात के सुत्री बोहरा मुसलमान और भड़ौच के मौला सलाम गिरिया लोग उत्तराधिकार और दाय के मामलों में हिन्दू विधि से शासित होते हैं। अतः धर्म परिवर्तन के द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण करने (Conversion to Islam) के विधिक परिणामसंक्षेप में निम्नलिखित हैं-
(1) इस्लाम धर्म और व्यक्तिगत विधि का प्रयोग जो उस धर्म के पीछे आवश्यक रूप से चलता है, धर्म परिवर्तन द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति के पूर्व धर्म को प्रतिस्थापित कर देता है ।
(2) इस्लाम धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति के अधिकार मुस्लिम विधि के अधीन हो जाते हैं।
(3) धर्म त्याग का प्रभाव इस्लाम धर्म ग्रहण करने के समय से तात्कालिक और प्रभावी होता है. भूतलक्षी नहीं
(4) धर्म परिवर्तन करके इस्लाम धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति की सम्पत्ति का उत्तराधिकारमुस्लिम विधि से शासित होता है।
6. इस्लाम धर्म त्यागने का प्रभाव :-यहाँ प्रश्न यह उठता है कि अपने धर्म का त्याग क्या होता है? इसका उत्तर यह होता है कि इस्लाम धर्म के जो सिद्धान्त मूलभूत नहीं हैं, उनसे विचलन (deviation) मात्र धर्म त्याग (Renunciation) नहीं हो जाता। जब तक कोई इस्लाम के मूलभूत सिद्धान्तों को स्वीकार करने में प्रवृत्त हो, वह धर्म त्यागी नहीं है। प्राचीन मुस्लिम विधि के अन्तर्गत इस्लाम धर्म त्यागने वाला व्यक्ति किसी अन्य मुसलमान का उत्तराधिकारी होने का अधिकार खो देता था। परन्तु अब जाति निर्योग्यता निवारण अधिनियम, 1850 के उपबन्धों के अन्तर्गत धर्म त्याग करने वाला व्यक्ति इन अधिकारों से वंचित न होगा। जाति निर्योग्यता निवारण अधिनियम, 1850 का परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम धर्म त्यागने वाला व्यक्ति अपने मुस्लिम नावेदारों से उत्तराधिकार में सम्पत्ति प्राप्त करने के अधिकार से वंचित नहीं होगा। (इस्लाम-धर्म त्याग का विवाह पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस सम्बन्ध में विवाह विच्छेद शीर्षक का उपशीर्षक ‘धर्म त्याग का विवाह पर प्रभाव’ देखें)।