
भागीदारी और इसके आवश्यक तत्व (Partnership and its Essentials) :-
भागीदारी की परिभाषा– भागीदारी अधिनियम 1932 की धारा 4 के अनुसार भागीदारी व्यक्तियों के बीच का संबंध है जिन्होंने किसी ऐसे व्यापार के लाभों को बांटने का करार कर लिया है जिसे वे सब चलाते हैं या सबकी ओर से उनमें से कोई एक चलाता है।
साधारण शब्दों में साझेदारी दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिन्होंने किसी व्यापारिक उद्देश्य से परस्पर पूंजी लगाई हो। वे सभी व्यक्ति जो आपसी समझौते के अनुसार भागीदारी व्यापार में शामिल होते हैं, व्यक्तिगत रूप से भागीदार और सामूहिक रूप से फर्म कहलाते हैं और जिस नाम से व्यवसाय चलाते हैं वह फर्म का नाम कहलाता है।
केस- फामान्ट बनाम कूपलैंड- इस मामले में वादी और प्रतिवादी अपने-अपने घोड़े से एक बग्गी चलाते थे और इससे प्राप्त होने वाले लाभ को आपस में बांट लेते थे। न्यायालय ने निर्णय दिया कि वे भागीदार हैं उनके बीच यह एक कारोबार था और इससे भागीदारी का निर्माण हुआ था।
केस- शशि कपिला बनाम आर पी अश्विन- किसी भागीदारी फर्म में भागीदार का फर्म से अलग अपना अस्तित्व भी होता है इसलिए निजी संपत्ति पर वह अपना अधिकार बनाए रखता है जिसे स्वयं ही भागीदारों की आस्तियो में शामिल नहीं किया जा सकता।
केस- डिप्टी कमिश्रर सेलटैक्स बना मेसर्स केके केलकुटी (1985)- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भागीदारों का संबंध उनके बीच करार पर आधारित होता है।
भागीदारी के आवश्यक तत्व- एक मान्य भागीदारी फर्म में इन लक्षणों का होना जरूरी है-
1) दो या दो से अधिक व्यक्तियों का समूह होना चाहिए– एक भागीदारी के लिए कम से कम दो व्यक्तियों का होना जरूरी है क्योंकि कोई भी अकेला व्यक्ति खुद से संविदा नहीं कर सकता है। धारा 41 इस बात को स्पष्ट कर देती है कि यदि किसी भागीदार की मृत्यु हो जाए या वह दिवालिया हो जाए तो इस कारण किसी भागीदारी संस्था के सदस्यों की संख्या घटकर एक रह जाती है तो वह संस्था अनिवार्य रूप से समाप्त हो जाती है।
2) व्यक्तियों के समूह में करार होना चाहिए– भागीदारी के जन्म के लिए यह जरूरी है कि पक्षकारों में कोई करार होना चाहिए। यह भागीदारी के लिए दूसरा आवश्यक तत्व है। यह करार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच लिखित या मौखिक रूप से हो सकता है, क्योंकि धारा 5 में कहा गया है कि भागीदारी का संबंध करार से उत्पन्न होता है स्थिति से नहीं। इसी विशेषता के कारण कुछ अन्य संबंधों से भिन्न होती है। जैसे संयुक्त हिंदू परिवार।
केस- अब्दुल बनाम सेंचुरी वुड इंडस्टरीज (1954)- इस मामले में न्यायालय ने कहा कि जरूरी नहीं है की भागीदारी का करार अभिव्यक्त रूप से किया गया हो यह पक्षकारों के आचरण से भी दर्शित हो सकता हैं।
केस- कमिश्नर का इनकम टैक्स मद्रास बनाम भाग्यलक्ष्मी (1965)- इस मामले में न्यायालय ने कहा कि करार भागीदारी का एक आवश्यक तत्व है।
3) भागीदारी का कारोबार होना चाहिए- भागीदारी के लिए कोई कारोबार का होना जरूरी है नही तो ऐसी संस्था केवल एक संघ मात्र बनकर रह जाएगी। कारोबार एक व्यापक शब्द है। इसके अंतर्गत हर व्यापार, उपजीविका और वृत्ति शामिल है लेकिन व्यापार किसी वैध उद्देश्य के लिए होना चाहिए अन्यथा भागीदारी अवैध मानी जाएगी।
4) कारोबार सभी या सबकी ओर से किसी एक भागीदार द्वारा चलाया जाना चाहिए- एक भागीदारी के लिए जरूरी है कि कारोबार सभी भागीदारों द्वारा या उन सबकी ओर से उनमें से किसी एक के द्वारा चलाया जाना चाहिए। यदि किसी एक भागीदार द्वारा व्यापार चलाया जाता है तो उसके द्वारा किए गए कार्य से सभी भागीदार जिम्मेदार होंगे। ऐसी दशा में वह फर्म का एजेंट होता है और उसे वे सभी कार्य करने का अधिकार होता है जो एक एजेंट को करने का अधिकार होता है। फर्म के एजेंट के रूप में वह व्यापार के सामान्य अनुक्रम के लिए किए गए सभी कार्यों के लिए अन्य सभी भागीदारों को बाध्य करता है।
5) कारोबार का उद्देश्य लाभ कमाना और बांटना होना चाहिए- भागीदारी का मुख्य उद्देश्य व्यापार के द्वारा लाभ कमाना है। यदि कोई कारोबार किसी आर्थिक भावना से प्रेरित होकर निस्वार्थ किया जाता है तो वह भागीदारी नहीं होगी। उस लाभ को भागीदारों में विभाजित करना भी आवश्यक है लेकिन जरूरी नहीं है की भागीदार किसी निश्चित अनुपात में ही हिस्सा ले या निश्चित समय पर ही लाभ का बंटवारा करें। लाभ का बंटवारा किसी भी अनुपात में और किसी भी समय किया जा सकता है।
उदाहरण– यदि A और B आपस मे यह भागीदारी करार करते हैं कि कोई लाभ नहीं लेगा तो यह मान्य भागीदारी नहीं है।
केस- स्मिथ बनाम एंडरसन (1880)- कोई भी गतिविधि जिसकी सफलता पर उसका परिणाम लाभ हो वह व्यापार कहलाती है।
भागीदारी और कंपनी में अंतर (Difference between Partnership and Company)
1) भागीदारी फर्म का उसके सदस्यों से अलग कोई अस्तित्व नहीं होता जबकि कंपनी एक विधिक व्यक्ति है और उसका उसके सदस्यों से अलग और स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है।
2) भागीदारी का जन्म संविदा द्वारा होता है जबकि कंपनी का जन्म कानून द्वारा होता है।
3) भागीदारी में साझेदार फर्म का एजेंट होता है जबकि कंपनी का अंशधारी कंपनी का एजेंट नहीं होता।
4) भागीदारी में आमतौर पर कम से कम दो और ज्यादा से ज्यादा 20 भागीदार होते हैं जबकि प्राइवेट कंपनी में कम से कम अंशधारी दो और ज्यादा से ज्यादा 50 होते हैं लेकिन पब्लिक कंपनी में कम से कम सात और ज्यादा से ज्यादा कितने ही सदस्य हो सकते हैं।
5) भागीदारी में दायित्व असीमित होता है जबकि कंपनी में दायित्व सीमित होता है।
6) भागीदारी अन्य साझेदारों की सहमति के बिना अपने हित का अंतरण नहीं कर सकता है जबकि पब्लिक लिमिटेड कंपनी का अंशधारी स्वतंत्रतापूर्वक अन्य अंशधारी की सहमति के बिना ही अपने हित का अंतरण कर सकता है।
7) हर भागीदार फर्म के प्रबंध में भाग लेने का अधिकारी है जबकि अंशधारी को कंपनी के प्रबंध में भाग लेने का अधिकार नहीं होता, इसका प्रबंध संचालक मंडल द्वारा किया जाता है।
8) किसी भी भागीदार की मृत्यु के साथ भागीदारी समाप्त हो जाती है जबकि अंशधारी की मृत्यु से कंपनी समाप्त नहीं होती है।
9) भागीदारी में तीसरा पक्षकार सभी भागीदारों पर संयुक्त रूप से और उनमें से किसी एक पर व्यक्तिगत रूप से दावा कर सकता है जबकि कंपनी में तीसरा पक्षकार केवल कंपनी के खिलाफ दावा कर सकता है उसके सदस्यों पर नहीं।
10) भागीदारी में आपसी करार द्वारा भागीदारी के विलेखों की शर्तों में हेर फेर कर सकते हैं और फर्म की पूंजी को घटा-बढ़ा सकते हैं जबकि अंशधारी कंपनी की अंशपूंजी को स्वतंत्रतापूर्वक आसानी से घटा-बढा नहीं सकते
11) भागीदारी में फर्म के हिसाब के खातों की जांच करना अनिवार्य नहीं है जबकि कंपनी के हिसाब की जांच करना अनिवार्य है।
भागीदारी और सह स्वामित्व में अंतर (Difference between Partnership and Co-ownership):-
1) भागीदारी अधिनियम 1932 की धारा 5 के अनुसार भागीदारी का जन्म संविदा से होता है स्थिति से नहीं जबकि सह-स्वामित्व का जन्म सामाजिक स्थिति से होता है।
2) भागीदारी का उद्देश्य व्यापार करना और लाभ बांटना है जबकि सह-स्वामित्व में ऐसा कोई उद्देश्य नहीं होता।
3) भागीदारों की कम से कम संख्या दो और ज्यादा से ज्यादा 20 होती है जबकि सह-स्वामियों की कोई भी संख्या हो सकती है।
4) भागीदारी में हर साझेदार फर्म और अन्य सभी भागीदारों का विधिक रूप से एजेंट होता है जबकि कोई सह-स्वामी अन्य सह-स्वामियों का एजेंट तभी होता है जब सभी सदस्यों ने उसे अधिकार दिए हो।
5) भागीदारी में कोई भागीदार अपने हित को बिना अन्य भागीदारों की सहमति के अंतरित या बेच नहीं सकता जबकि एक सह-स्वामी अपने हित को बिना अन्य सदस्यों की सहमति के अंतरित कर सकता है या बेच सकता है।
6) भागीदारी में एक साझेदार को फर्म की संपत्ति पर विशेषाधिकार प्राप्त होता है जबकि एक सह-स्वामी की संयुक्त संपत्ति पर कोई विशेषाधिकार नहीं होता।