Injuria Sine Damnum(बिना हानि के क्षति) Damnum Sine Injuria(बिना क्षति के हानि)

बिना हानि के क्षति (Injuria sine damnum) – अपकृत्य विधि में इस सूत्र का बड़ा महत्व है। वस्तुतः यही सूत्र अपकृत्य का आधार एवं वाद-योग्य है। अपकृत्य विधि का यह सामान्य सिद्धान्त है कि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन अथवा अतिलंघन वाद योग्य होता है। जिस व्यक्ति के विधिक अधिकारों के उल्लंघन होता है वह व्यक्ति; उस व्यक्ति के विरुद्ध नुकसानी अर्थात् क्षतिपूर्ति का वाद ला सकता है जिसके द्वारा अधिकारों का उल्लंघन किया गया है; चाहे ऐसे उल्लंघन से कोई आर्थिक क्षति हुई हो या नहीं। यही “बिना हानि के क्षति” (injuria sine damnum) के सूत्र का सार है। सरलत्तम शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यह सूत्र ऐसे व्यक्ति को नुकसानी का वाद लाने का अधिकार प्रदान करता है जिसके विधिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। इसमें आर्थिक क्षति का होना आवश्यक नहीं है।

यह सूत्र तीन शब्दों से मिलकर बना है

(i) injuria अर्थात् क्षति या विधिक अधिकारों का उल्लंघन;

(ii) sine अर्थात बिना; एवं

(iii) damnum अर्थात हानि ।

इस प्रकार इन तीनों शब्दों का मिलाजुला अर्थ हुआ- ‘बिना हानि के क्षति’। ऐसी क्षति बिना हानि के भी अनुयोज्य (actionable) अर्थात् वाद योग्य है। इसके लिए आवश्यक मात्र किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन होना है। इसमें आर्थिक हानि का होना आवश्यक नहीं है।

इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। ‘ख’क’ के उद्यान में ‘क’ की अनुमति के बिना प्रवेश करता है और जलाशय का आनन्द उठाता है। यद्यपि ‘ख’ के इस कृत्य से ‘क’ को कोई आर्थिक वास्तविक हानि नहीं होती है फिर भी ‘क’ ‘ख’ के विरुद्ध नुकसानी का वाद ला सकता है क्योंकि ‘ख’ के इस कृत्य से ‘क’ के विधिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।

इस सम्बन्ध में ‘एश बी बनाम व्हाइट’ [(1703)2 एल.आर.938] का एक महत्त्वपर्ण मामला है। इसमें वादी आइलेसवरी निगम का निवासी था तथा प्रतिवादी निर्वाचन अधिकारी। सन् 1701 में हुए संसदीय चुनावों में वादी को मत देने का अधिकारी था लेकिन प्रतिवादी ने वादी को मत देने से वंचित कर दिया। यद्यपि इस चुनाव में वादी का प्रत्याशी विजयी रहा था तथा वादी के मत नहीं देने से उसे कोई नुकसान नहीं हुआ था फिर भी वादी द्वारा प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद दायर किया गया ।वादी का यह तर्क था कि उसे मताधिकार से वंचित कर देने से उसके विधिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है अतः वह क्षतिपूर्ति पाने का हक़दार है। जबकि प्रतिवादी की ओर से यह कहा गया कि वादी के मत नहीं देने से उसे कोई हानि नहीं हुई है इसलिये वह नुकसानी पाने का हक़दार नहीं है। न्यायालय ने प्रतिवादी के तर्क को नकारते हुए वादी का वाद डिक्री कर दिया । मुख्य न्यायाधीश लार्ड हॉल्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि “प्रत्येक विधिक अधिकार के अतिक्रमण से हानि होती है चाहे उससे किसी को एक पेनी का भी नुकसान न हो। हानि केवल धन की ही नहीं होती है। किसी व्यक्ति के विधिक अधिकार में व्यवधान उत्पन्न होना स्वयं में एक हानि है। ऐसी हानि अपने आपमें अनुयोज्य अर्थात् वाद योग्य है।”

बिना क्षति के हानि (Damnum sine injuria) – ‘बिना क्षति के हानि’ damnum sine injuria) का सूत्र ‘बिना हानि के क्षति’ (injuria sine damnum) ने बिल्कुल विपरीत है। इसमे बिना क्षति के हानि को अनुयोज्य (actionable) अर्थात वाद योग्य नहीं माना गया है। इसका मुख्य कारण है कि ऐसे मामलों में किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होता है। जब तक किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होता है तब तक वह अपकृत्य विधि के अधीन नुकसानी का वाद नहीं ला सकता है। ऐसे मामलों में हानि महत्त्वपूर्ण नहीं होती है। किसी व्यक्ति को कितनी ही आर्थिक हानि होने पर भी यदि उसके किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण नहीं होता है तो वह नुकसानी का वाद नहीं ला सकता। यहीं इस सूत्र का सार एवं अर्थ है। उदाहरणार्थ-जयपुर के जौहरी बाजार में ‘क’ कपड़े का व्यवसाय करता है और उसका व्यवसाय अच्छा चलता है। उसी बाजार में ‘ख’ भी ऐसे ही कपड़ों का व्यवसाय प्रारम्भ करता है जिससे ‘क’ की ग्राहकी कम हो जाती है और उसे आर्थिक नुकसान होता है। ‘क’ख’ के विरुद्ध नुकसानी का वाद नही ला सकता क्योंकि उसके किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण नहीं हुआ है; यद्यपि उसे आर्थिक हानि अवश्य हुई है।इस सम्बन्ध में ‘ग्लूसेस्टर ग्रामर स्कूल’ [(1410) वाई.बी.एच.11एच.4 एफ 47] का एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें वादी एक स्थान पर अपना स्कूल चला रहा था। प्रतिवादी ने भी उसी स्कूल के पास अपना एक स्कूल प्रारम्भ कर दिया जिससे वादी-स्कूल के कई विद्यार्थी प्रतिवादी के स्कूल में आ गये। इस पर वादी को अपना स्कूल चलाने के लिए शुल्क में काफी कमी करनी पड़ी जिससे उसको भारी आर्थिक हानि हुई। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद दायर किया। न्यायालय ने वादी का वाद खारिज करते हुए कहा कि प्रतिवादी को भी स्कूल खोलने का अधिकार था। उसके स्कूल खोलने से वादी के किसी भी विधिक अधिकार का अतिक्रमण नहीं होता है।

उषा बेन बनाम भाग्यलक्ष्मी चित्र मन्दिर’ (ए.आई. आर. 1978 गुजरात 13) का एक और अच्छा प्रकरण है। इसमें वादी द्वारा प्रतिवादी के विरुद्ध एक वाद इस आशय का दायर किया गया कि फिल्म ‘जय संतोषी माँ’ के प्रदर्शन पर रोक लगाई जाये क्योंकि इसके कुछ दृश्यों से वादी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँची है। इस फिल्म में सरस्वती, लक्ष्मी एवं पार्वती को ईर्ष्यालु के रूप में दिखाते हुए उनका उपहास किया गया था। न्यायालय ने वादी के वाद को नकारते हुए कहा कि इससे उसके किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण नहीं होता है।

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