भरण पोषण की परिभाषा :- भरण पोषण में जीवन की आवश्यकताये जैसे- खाना, कपड़ा और निवास आते हैं।
हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण पोषण अधिनियम 1956 की धारा 3 (ख) के अनुसार भरण पोषण में-
1) भोजन, वस्त्र, निवास, शिक्षा और चिकित्सा संबंधी सहायता या इलाज आता है।
2) विवाहित पुत्री की दशा में उसके विवाह के लिए युक्तियुक्त खर्च भी आते हैं।
हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण पोषण अधिनियम 1956 की धारा 18 के अनुसार कोई भी हिंदू पत्नी चाहे उसका विवाह अधिनियम से पहले हो या बाद में अपने पति से भरण पोषण पाने की हकदार होगी।
कोई हिंदू पत्नी अपने पति से अलग रहने पर भी इन दशाओं में भरण पोषण की हकदार होगी-
क) यदि उसका पति बिना युक्तियुक्त कारण और उसकी सहमति के बिना उसका परित्याग करने का या जानबूझ कर उसकी उपेक्षा करने का दोषी है।
ख) यदि उसका पति उसके साथ क्रूरता का व्यवहार करता है जिससे उसके मन में यह आशंका पैदा हो कि उसका पति के साथ रहना हानिकारक होगा।
ग) उग्र या कुष्ठ रोग (इसे 2019 के संशोधन द्वारा हटा दिया गया)
घ) यदि उसके पति की कोई अन्य पत्नी जीवित है।
ड) यदि उसका पति उसी घर में जिसमें उसकी पत्नी निवास करती है, कोई उपपत्नी रखता है।
च) यदि पति धर्म परिवर्तन के कारण हिंदू न रह गया हो।
छ) यदि उसके अलग रहने का कोई अन्य न्यायोचित कारण है।
भरण पोषण के अधिकार की समाप्ति– इन दशाओं में पत्नी का अलग निवास और भरण पोषण का अधिकार समाप्त हो जाता है-
1) यदि वह धर्म परिवर्तन के कारण हिंदू नहीं रहती।
2) यदि वह व्यभिचारी हो जाती है।
केस- विठ्ठल बनाम माईबेन (1995)- हिंदू विधि में पत्नी शब्द के अंतर्गत तलाकशुदा पत्नी भी आती है।
केस- लक्ष्मी बनाम महेश्वर (1985)- यदि पति दाम्पत्य अधिकारों के पुनर्स्थापन की डिक्री की अवहेलना करता है तो पत्नी धारा 18 में भरण पोषण की मांग कर सकती है।
केस- मेरूभाई मदन भाई बनाम रानीबेन (2000)- दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 और पारिवारिक विधि में भरण पोषण के अधिकार में कोई विरोध नहीं है। गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा कि दोनों एक साथ अस्तित्व में रह सकते है और एक दूसरे के पूरक हैं।
विधवा पुत्रवधू का भरण पोषण-हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण पोषण अधिनियम 1956 की धारा 19 के अनुसार कोई हिंदू पत्नी चाहे वह इस अधिनियम के आरंभ से पहले या उसके बाद विवाहित हो. अपने पति की मृत्यु के बाद अपने ससुर से भरण पोषण पाने की हकदार होगी लेकिन तब जब-
1) वह स्वयं अपनी कमाई से या अन्य संपत्ति से अपना पालन पोषण करने में असमर्थ हो।
2) जहां उसके पास अपनी स्वयं की कोई संपत्ति नहीं है।
वह इन दशाओं में किसी से भी पालन पोषण प्राप्त करने में असमर्थ हो–
1) अपने पति या पिता या माता की सम्पत्ति से।
ii) अपने पुत्र या पुत्री की सम्पत्ति से।
भरण-पोषण के अधिकार की समाप्ति– विधवा पुत्रवधू का यह अधिकार इन दशाओं में समाप्त हो जाता है-
1) जब विधवा पुत्रवधू ने पुनर्विवाह कर लिया हो।
2) जब धर्म परिवर्तन के कारण वह हिंदू ना रही हो।
3) जब पुत्रवधू ने ऐसी संपत्ति में कोई अश प्राप्त कर लिया हो।
विधवा पुत्रवधू को प्राचीन और नई विधि में प्राप्त अधिकारों में अंतर– प्राचीन हिंदू विधि में विधवा पुत्रवधू के भरण पोषण का ससुर का दायित्व केवल नैतिक था। ससुर का दायित्व ना तो वैधानिक था और ना व्यक्तिगत। ससुर की मृत्यु के बाद ससुर की संपत्ति के उत्तराधिकारी से विधवा पुत्रवधू कानूनी रूप से पालन पोषण पाने की अधिकारी थी। लेकिन वर्तमान विधि में ससुर का दायित्व वैधानिक तो है लेकिन सीमित है।
केस- अमिथु बनाम गांधी अम्मल (1977)- न्यायालय ने कहा कि विधवा पुत्रवधू को ससुर से तभी भरण पोषण मिल सकता है जब उसको सहभागीदारी में कोई अंश ना मिला हो।