
प्राइवेट प्रतिरक्षा (Private Defence)
प्राइवेट प्रतिरक्षा से संबंधित प्रावधान भारतीय न्याय संहिता की धारा 34-44 तक दिए गए हैं।
धारा 34 के अनुसार के अनुसार कोई बात अपराध नहीं है, जो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में की जाती है।
केस- राजेश कुमार बनाम धर्मवीर (1997)- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा केवल विधिविरुद्ध हमले को विफल करने के लिए किया जा सकता है लेकिन बदले की भावना के रूप में इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता।
केस- रनवीर सिंह बनाम मध्यप्रदेश राज्य (2009)- इस मामले में न्यायालय ने कहा कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को प्राप्त करने के लिए उस अधिकार के लिए विशेष तर्क देना जरूरी नहीं है। प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की उपलब्धता के सबूत का भार अभियुक्त पर होता है।
धारा 35- शरीर और सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार– धारा 37 में दिये गए निर्बन्धनो के अधीन हर व्यक्ति को अधिकार है कि वह-
पहला– मानव शरीर पर प्रभाव डालने वाले किसी अपराध के खिलाफ अपने शरीर और किसी अन्य व्यक्ति के शरीर की प्रतिरक्षा करें।
दूसरा– किसी ऐसे कार्य के खिलाफ जो चोरी, लूट, रिष्टि या अपराधिक अतिचार की परिभाषा में आने वाला अपराध है या जो इन अपराधों को करने का प्रयत्न है, अपनी या किसी अन्य व्यक्ति की सम्पत्ति की प्रतिरक्षा करें चाहे सम्पत्ति चल हो या अचल।
धारा 36- ऐसे व्यक्ति के कार्य के खिलाफ प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार जो विकृतचित्त आदि हो- जब कोई कार्य जो उस कार्य को करने वाले व्यक्ति के -✓बालकपन,
✓समझ की परिपक्कता के अभाव,
✓चित्तविकृति या मत्तता के कारण, या
✓उस व्यक्ति के किसी भ्रम के कारण,
किया जाए तो प्राइवेट प्रतिरक्षा का वही अधिकार होगा जो वह उस कार्य के वैसा अपराध होने की दशा में होता।
उदाहरण – Y पागलपन के असर में A को जान से मारने की कोशिश करता है। Y किसी अपराध का दोषी नहीं है। लेकिन A को प्राइवेट प्रतिरक्षा का वही अधिकार है जो वह Y के स्वस्थचित्त होने की दशा में रखता।
धारा 36 में दिया गया सिद्धांत यह है कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार ऐसे कार्य के कर्ता के खिलाफ अधिकार उत्पन्न करता है जो भले ही अपराध करने वाला व्यक्ति अक्षमता के कारण दंडनीय नहीं है या आवश्यक मन स्थिति के अभाव में किया जाए।
उदाहरण– अगर एक पागल व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति पर हमला करता है या दूसरे व्यक्ति का पर्स लेकर भाग जाता है तो उस व्यक्ति का प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार या अपना पर्स वापस लाने के अधिकार इस बात से प्रभावित नहीं होगा कि पागल व्यक्ति आपराधिक आशय बनाने के योग्य नहीं है।
उदाहरण – A रात में एक ऐसे घर में प्रवेश करता है जिसमें प्रवेश करने के लिए वह वैध रूप से हकदार है। Y सदभावपूर्वक A को गृहभेदक समझकर A पर हमला करता है। यहां Y इस भ्रम में A पर हमला करके कोई अपराध नहीं करता है। लेकिन A, Y के खिलाफ प्राइवेट प्रतिरक्षा का वही अधिकार रखता है जो वह तब रखता जब Y उस भ्रम में कार्य ना करता।
धारा 37- कार्य जिनके खिलाफ प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है- यह धारा प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार पर चार प्रकार के निर्बन्धनो का वर्णन करती है-
1) अगर कोई कार्य जिससे मृत्यु या घोर उपहति की आशंका ना हो सदभावपूर्वक कार्य करते हुए लोकसेवक द्वारा किया जाता है या किये जाने का प्रयत्न हो।
2) अगर कोई कार्य जिससे मृत्यु या घोर उपहति की युक्तियुक्त आशंका न हो और सदभावपूर्वक लोकसेवक के निर्देश से किया गया हो तो उस कार्य के खिलाफ प्राइवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है भले ही वह निर्देश कानून के अनुसार न्यायानुमत ना भी हो।
3) जिन दशाओं में लोक अधिकारियों की सहायता लेने के समय है।
4) किसी भी दशा में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार उतनी अपहानि से ज्यादा नहीं है जितनी प्रतिरक्षा के लिये जरूरी है।
शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा (Private defence of Body):-
धारा 38- शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु करने पर कब होता है- शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार धारा 38 में दिए गए निर्बंधनों के अधीन रहते हुए हमलावर की स्वेच्छया मृत्यु करने तक है, अगर वह अपराध इनमें से किसी भी तरह का है-
पहला– ऐसा हमला जिससे आशंका हो कि ऐसे हमले का परिणाम मृत्यु होगा।
दूसरा– ऐसा हमला जिससे आशंका हो कि ऐसे हमले का परिणाम घोर उपहति होगा।
तीसरा– बलात्संग के आशय से किया गया हमला।
चौथा– प्रकृति के विरुद्ध अपराध करने के आशय से किया गया हमला।
पांचवा – व्यपहरण या अपहरण करने के आशय से किया गया हमला।
छठा– सदोष परिरोध में रखने के आशय से किया गया हमला।
सातवां – अम्ल फेंकने या फेंकने का प्रयास करना जिससे यह आशंका हो कि ऐसे कार्य का परिणाम घोर उपहति होगा।
मृत्यु की आशंका-
केस- रामा बनाम राज्य (1978)- इस मामले में मृतक और अभियुक्त दोनों भाई थे। मृतक बलशाली था उसने अभियुक्त को बुरी तरह पीटा और जमीन पर पटक दिया। जब वह उसका गला घोटने लगा तो उसने हथोड़ा उठाकर उसके सिर में मार दिया। अभियुक्त को बचाव दिया गया।
घोर उपहति की आशंका-
केस- शिवप्रसन्न सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1979)- इस मामले में सड़क पर सोए हुए दो व्यक्ति को अभियुक्त ने ट्रक से कुचल दिया। ट्रक के आगे कुछ लोग अभियुक्त को रोकने के लिए खड़े हो गए। अभियुक्त ड्राइवर ने डरकर ट्रक की रफ्तार बढ़ा दी जिससे कई लोगों की मृत्यु हो गई। अभियुक्त ने तर्क दिया कि उसे पूरी आशंका थी कि भीड़ उसे गम्भीर चोट पहुँचाएगी। न्यायालय ने कहा कि यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता।
बलात्कार के आशय से किया गया हमला –
केस- प्रकाशचंद बनाम राजस्थान राज्य (1991)- इस मामले में अभियुक्त की पत्नी को बलात्कार करने के आशय से कुछ व्यक्तियों ने पकड़कर खींचा। न्यायालय ने अभियुक्त को बचाव दिया और कहा कि इस तरह से बलपूवर्क घर में घुसना और बलात्कार के आशय से उसकी पत्नी का हाथ पकड़कर खींचना धारा 38 के खंड (3) में अभियुक्त को बचाव देता है।
धारा 39- कब ऐसे अधिकार का विस्तार मृत्यु से अलग कोई अपहानि करने तक का होता है- अगर अपराध धारा 38 में दिए गए अपराधो में से किसी तरह का नहीं है तो शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार हमलावर की मृत्यु से अलग कोई अपहानि करने तक का होता है।
केस- योगेंद्र मोरारजी बनाम गुजरात राज्य (1980)- इस मामले में अभियुक्त ने कुआं खुदवाया। कुँए की मजदूरी को लेकर मजदूरों के साथ उसका विवाद हो गया। जब वह जीप लेकर जाने लगा तब मजदूरों ने हाथ देकर उसकी जीप रुकवानी चाही। उसने अपनी रिवॉल्वर निकालकर तीन फायर किए। एक मजदूर की मृत्यु हो गई। न्यायालय ने उसे बचाव नहीं दिया क्योंकि मजदूरों का कार्य केवल सदोष अवरोध या उपहति की आशंका में ही आता था।
धारा 40- शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का शुरू होना और बना रहना- शरीर की प्रतिरक्षा का अधिकार उसी क्षण शुरू हो जाता है जब अपराध करने के प्रयत्न या धमकी से शरीर के संकट की युक्तियुक्त आशंका पैदा होती है, चाहे वह अपराध किया ना गया हो और वह तब तक बना रहता है जब तक शरीर के संकट की ऐसे आशंका बनी रहती है।
उदाहरण के लिए– अगर एक व्यक्ति एक खतरनाक हथियार छीनकर अपने आपको इस तरह से तैयार कर रहा हो जिससे तुरंत हिंसा का उसका आशय स्पष्ट हो तो प्राइवेट प्रतिरक्षा के प्रयोग के लिए निश्चित आधार होगा क्योंकि उसका आचरण धमकी के समान है और दूसरे व्यक्ति यह सोचने का पर्याप्त आधार रखते हैं कि खतरा बिल्कुल नजदीक है।
केस- नवीन चंद्र बनाम उत्तरांचल राज्य (2007)- इस मामले में दो भाइयों में पारिवारिक विवाद था और दुर्घटना के दिन दोनों परिवारों के बीच कुछ कहासुनी हुई थी। मृतक के सिर पर चोटे पहुंची थी। न्यायालय ने मामले में निर्णय दिया कि शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की शुरुआत जैसे ही शरीर के खतरे की आशंका होती है वैसे ही शुरू हो जाती है और तब तक जारी रहता है जब तक वह खतरा बना रहता है।
सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा (Private defence of Property):-
धारा 41- कब सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु करने का होता है-
पहला– लूट
दूसरा– रात्रो गृह-भेदन
तीसरा– अग्नि द्वारा रिष्टि, जो किसी ऐसे निर्माण तम्बू या जलयान को की गई है, जो मानव आवास, सम्पत्ति की रक्षा के स्थान के रूप में उपयोग में लाया जाता है।
चौथा– चोरी, रिष्टि या गृह अतिचार जो ऐसी परिस्थितियों में किया गया है कि अगर प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग ना किया गया तो उसका परिणाम मृत्यु या गम्भीर चोट होगा।
धारा 42- ऐसे अधिकार का विस्तार मृत्यु से अलग कोई अपहानि करने का कब तक होता है- अगर अपराध चोरी, रिष्टि या अपराधिक अतिचार है जो धारा 41 में दिए गए अपराध से अलग हो तो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार अपराधी की मृत्यु करने तक का नहीं होगा बल्कि कोई अन्य अपहानि करने तक का होता है।
केस- कुंवरसैन बनाम वीरसैन (1969)- इस मामले में Y अभियुक्त के खेत से होकर गुजरने वाले रास्ते से होकर जा रहा था। अभियुक्त A, B, C, D अचानक लाठियाँ और कुल्हाड़ी लेकर आए। Y ने उनसे प्रार्थना की कि वह आज के बाद नहीं आएगा तब भी उन्होंने उस पर हमला किया। उसके नौ चोटे आई और दाहिना हाथ टूट गया। न्यायालय ने उन्हें बचाव नहीं दिया।
केस- इस्माइल बनाम सम्राट (1926)- इस मामले में अभियुक्त ने रात को जागने पर मृतक को अपने आंगन में पाया। मृतक घर के आंगन के चारो तरफ बनी दीवार को लांघकर आया था। अभियुक्त ने उसके सिर पर गंडासा दे मारा। न्यायालय से बचाव दिया कहा कि आंगन भी एक भवन था भले ही उसके ऊपर छत नहीं थीं।
धारा 43- सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का शुरू होना और बना रहना- सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार तब शुरू होता है जब सम्पत्ति के संकट की युक्तियुक्त आशंका शुरू होती है और तब तक बना रहता है-
1) चोरी के खिलाफ–
✓अपराधी के सम्पत्ति सहित पहुंच से बाहर हो जाने तक या
✓लोक अधिकारियों की सहायता लेने तक या संपत्ति की वापसी हो जाने तक।
2) लूट के खिलाफ तब तक बना रहता है जब तक
✓व्यक्ति की तत्काल मृत्यु का,
✓तत्काल उपहति (चोट) का या
✓तत्काल अवरोध का डर बना रहता है।
3) अपराधिक अतिचार या रिष्टि के खिलाफ तब तक बना रहता है- ✓जब तक अपराधी अपराधिक अतिचार या रिष्टि करता रहता है।
4) रात्रो गृह भेदन के खिलाफ तब तक बना रहता है- ✓जब तक गृह अतिचार होता रहता है।
केस- अमजद खान बनाम राज्य (1952)- इस मामले में सांप्रदायिक हिंसा के दौरान भीड़ ने कुछ दुकानें जला दी थी जिसमें अभियुक्त की दुकान की तरफ भी भीड बढ़ रही थी और वह अभियुक्त की बंद दुकान के दरवाजे लाठियों से पीटने लगे। अभियुक्त ने अपनी बंदूक से दो बार फायर किया जिसमें दंगाई भीड़ का एक व्यक्ति मारा गया। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मामले के तथ्य अभियुक्त को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध कराने के लिए काफी है भले ही उसके कार्य से मृत्यु हो गई क्योंकि अभियुक्त की यह आशंका उचित थी कि अगर वह तत्परता से कार्य ना करता तो गंभीर क्षति हो जाती।
केस- भीमसेन बनाम राज्य– इस मामले में अभियुक्त के घर मृतक उसकी पत्नी का शील हरण करने के उद्देश्य से गया। अभियुक्त ने उसके एक डंडा मारा। वह नीचे गिर पड़ा और वह उसे तब तक पीटता रहा जब तक वह मर नहीं गया। अभियुक्त ने कहा कि मृतक उस समय तक गृह अतिचार में था। न्यायालय ने कहा कि मृतक ने जिस आशय से घर में प्रवेश किया था उसका वह आशय तो डंडा लगते ही जैसे वह नीचे गिर गया वैसे ही समाप्त हो गया था। अब तो वह घर के अंदर इसलिए रहा क्योंकि उसे भगाने का मौका ही नहीं मिला।
धारा 44- घातक हमले के खिलाफ प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार जबकि निर्दोष व्यक्ति को अपहानि होने के जोखिम है-जिस हमले में मृत्यु की आशंका होती हो कि उसके खिलाफ प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करने में अगर प्रतिरक्षा करने वाला व्यक्ति ऐसी स्थिति में हो कि उसके अधिकार के प्रयोग से निर्दोष व्यक्ति की अपहानि की जोखिम के बिना वह उस अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता है तो उसका प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार उस जोखिम उठाने तक का है।
साधारण शब्दों में यह धारा प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का उपयोग करते हुए कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में निर्दोष व्यक्तियों को अपहानि या नुकसान करने को न्यायसंगत बनातीं है।
उदाहरण – A पर एक भीड़ द्वारा हमला किया जाता है जो उसकी हत्या करने की कोशिश करती है। वह उस भीड़ पर गोली चलाये बिना अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता और वह भीड़ में मिले हुए छोटे-छोटे बच्चे को अपहानि का जोखिम उठाएं बिना गोली नहीं चला सकता। अगर वह गोली चलाने से उन बच्चों में से किसी बच्चे की अपहानि करे तो A कोई अपराध नहीं करता