Section 3(5) BNS Explained: Common Intention और Joint Liability

Section 3(5) Common Intention

सामान्य आशय (Common intention)

धारा 3 की उपधारा (5) के अनुसार जब कोई आपराधिक कार्य कई व्यक्तियों द्वारा अपने सबके सामान्य आशय को अग्रसर करने में किया जाता है, तब ऐसे व्यक्तियों में से हर व्यक्ति उस कार्य के लिए इस तरह दायित्व के अधीन है मानो वह कार्य अकेले उसी ने किया हो।

धारा 3 (5) संयुक्त दायित्व के सिद्धांत (Joint Liability) को प्रतिपादित करती है। अगर दो या ज्यादा व्यक्ति किसी कार्य को संयुक्त रूप से करते हैं तो ऐसा माना जाएगा कि उसमें से प्रत्येक ने उस कार्य को व्यक्तिगत रूप से किया है। संहिता के निर्माताओ ने इस धारा को उन मामलों के निपटारे के लिए बनाया है जिनमें हर व्यक्ति द्वारा किए गए कार्यों को निश्चित रूप से अलग करना मुश्किल लगता है।

इस धारा की आवश्यक शर्तें (Essentials)-
(1) एक आपराधिक कार्य।

(2) आपराधिक कार्य एक से ज्यादा व्यक्तियों द्वारा किया गया हो।

(3) आपराधिक कार्य ऐसे व्यक्तियों द्वारा सबके सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिये किया गया हो।

(4) ऐसे व्यक्तियों के बीच सामान्य आशय पूर्व नियोजित योजना में होना चाहिए।

(5) अपराध के सभी अभियुक्तों का किसी ना किसी तरह शामिल होना जरूरी है।

धारा 3 (5) के महत्वपूर्ण मामले-

केस- वारेंद्र कुमार घोष बनाम एंपरर (1924)- इस मामले में अपीलकर्ता को हत्या और सामान्य आशय में अभियुक्त घोषित किया गया क्योंकि उसने अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर एक सब पोस्टमास्टर की हत्या कर दी थी। अपीलकर्ता ने अपने बचाव में ये तर्क दिए-
1) वह पोस्ट ऑफिस के बाहर खड़ा था और उसने सब पोस्टमास्टर पर गोली नहीं चलाई।
2) लूटने के लिए वह दूसरों का साथ देने पर मजबूर किया गया था और मृतक को मारने का उसका कोई आशय नहीं था।
न्यायालय ने मामले में निर्णय दिया और कहा कि वे लोग भी सामान्य आशय में अपराध में सहयोगी माने जाते हैं जो केवल बाहर खड़े होकर इंतजार करते हैं क्योंकि वह बाहर इसलिए खड़ा था ताकि वह दूसरे अभियुक्तों को खतरे की चेतावनी दे सके।

केस- महबूब शाह बनाम एंपरर– इस मामले को सिंधु नदी मामले के नाम से भी जाना जाता है। इस मामले में न्यायालय ने इस उपधारा के संबंध में कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत दिए-
(1) धारा 3 (5) में अभियुक्त को दंडित करने के लिए उनके द्वारा कोई आपराधिक कार्य सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिए किया गया हो।

(2)अभियुक्तों के मस्तिष्क का मिलन होना आवश्यक है।
(3) घटना से पहले योजना होनी जरूरी है।
(4) धारा 3 (5) के शब्दावली में सामान्य आशय को तब तक निश्चित नहीं माना जाना चाहिए जब तक मामले की परिस्थितियों में से निर्धारित ना किया जा सके। सके।

केस- ऋषिदेव पांडे बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1955)- इस मामले में न्यायालय ने कहा की धारा 34 के संबंध में सामान्य आशय घटनास्थल पर भी उत्पन्न हो सकता है।

केस- वाई वेंकैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2009)- इस मामले में न्यायालय ने कहा कि इस उपधारा में सहअपराधियों में से अगर एक को दोषमुक्त कर दिया जाए तो अन्य अपराध से अपने आप ही मुक्त नहीं हो जाते।

केस- पांडुरंग बनाम हैदराबाद– इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एक व्यक्ति पर जब एक से ज्यादा व्यक्ति उसे मारने के लिए हमला करते हैं तो ऐसा भी हो सकता है कि सभी उसे मारना ना चाहते हो, यह भी हो सकता है कि उनमें से कोई केवल उसे गंभीर चोट ही पहुंचाना चाहता हो। इस मामले में न्यायालय ने अभियुक्त की सजा को इसलिए रद्द कर दिया क्योंकि अभियोजन यह साबित नहीं कर सका कि हत्या सभी अभियुक्तों के सामान्य आशय को अग्रसर करने के उद्देश्य से की गई थी।

सामान्य आशय और सामान्य उद्देश्य में अंतर

(Difference between common intention and common object)

धारा 3 की उपधारा (5) सामान्य आशय के बारे में प्रावधान करती है।
– सामान्य उद्देश्य का वर्णन करती है जिसके अनुसार अगर विधिविरुद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा उस जमाव के सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में अपराध किया जाता है जिसका किया जाना उस जमाव के सदस्य उस उद्देश्य को अग्रसर करने में सम्भाव्य जानते थे तो हर व्यक्ति जो अपराध को करने के समय उस जमाव का सदस्य है, उस अपराध का दोषी है।

1) धारा 3 (5) में कम से कम दो व्यक्ति होने चाहिए जबकि धारा 190 में कम से कम पांच व्यक्ति होने चाहिए।

2) सामान्य आशय में अपराधियों का कोई भी अपराध करने के लिए सामान्य आशय हो सकता है जबकि सामान्य उद्देश्य में अपराधियों का धारा 189 (1) में दिए गए उद्देश्यों में से कोई एक उददेश्य होना चाहिये।

3) धारा 3 (5) में मस्तिष्क का मिलान होना या पूर्वयोजना का होना आवश्यक है जबकि धारा 190 में अपराध की संभावना का ज्ञान होना ही पर्याप्त है उसके लिए पहले से योजना बनाना आवश्यक नहीं है

4) धारा 3 (5) में शारीरिक और मानसिक कार्य दोनों होने चाहिए जबकि धारा 190 में केवल एक अवैध सभा होनी चाहिए।

5) धारा 3 (5) में कुछ ना कुछ कार्य अवश्य किया जाना चाहिए जबकि धारा 190 में वहां उपस्थित रहना ही पर्याप्त है।

6) धारा 3 (5) में वर्णित सामान्य आशय किसी अपराध का गठन नहीं करता केवल सम्मिलित दायित्व के सिद्धांत को निर्धारित करती है जबकि धारा 190 में वर्णित सामान्य उद्देश्य एक विशिष्ट अपराध का गठन करता है।

7) धारा 3 (5) अपने आप में दंडनीय नहीं जबकि धारा 190 में विधिविरुद्ध जमाव में शामिल व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है।

8) धारा 3 (5) अपने आप में विस्तृत है अर्थात अधिकांश अपराधों में लागू होती है जबकि धारा 190 संकीर्ण धारा है यह केवल धारा 189 (1) में दिए गए अपराधों पर ही लागू होती है।

9) धारा 3 (5) में सामान्य आशय से प्रेरित होकर किये जाने वाले व्यक्तियों में से केवल वही व्यक्ति दायीं होगा जिसने अपराध किया हो जबकि सामान्य उद्देश्य में प्रत्येक व्यक्ति दोषी ठहराया जाता है जो विधिविरुद्ध जमाव का सदस्य होने के कारण सामान्य उद्देश्य में अपराध करता है।

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