अपराध के महत्वपूर्ण तत्व, दुराशय संबंधित मामले व अपवाद?

अपराध के चार महत्वपूर्ण तत्व है-

1) मानव (Human)

2) दुराशय (Mensrea)

3) कार्य या लोप (Act or Omission)

4) उसे कार्य से किसी अन्य को क्षति (Damage)

दुराशय भी अपराध का एक तत्व है, क्योंकि अपराध के लिए आशय (Intention) और कार्य (Act) दोनों का होना ज़रूरी है। कार्य अपने आप मे दण्डनीय नहीं है। जब तक उसे किसी विशिष्ट आशय से किया जाए या वह निषिद्ध ना हो। आमतौर पर यह माना जाता है कि दुराशय के अभाव में कोई भी कार्य चाहे छोटा हो या बड़ा अपराध नहीं हो सकता। अपराध के लिये दायित्व किसी इच्छित कार्य और उस कार्य के पीछे निहित विशिष्ट आशय पर ही निर्भर होना चाहिए।

एक महत्वपूर्ण लैटिन सूत्र दुराशय के सम्बंध में प्रचलित है- “Actus non facit reum nisi mens sit rea” इसका अर्थ है “मात्र कार्य किसी को अपराधी नहीं बनाता जब तक उसका मन अपराधी ना हो।”

इसी तरह से दूसरा सूत्र यह है “Actus me invito factus non est mens actus” इसका मतलब है कि “मेरी द्वारा मेरी इच्छा के विरुद्ध किया गया कार्य मेरा नहीं है। कोई भी अपराध बिना दुराशय के नहीं हो सकता लगभग हर कानून प्रणाली (Legal System) का यह सिद्धांत है कि अपराध के लिए दुराशय जरूरी है।

पृष्ठभूमि (background)- प्राचीनकाल में अपराध और अपकृत्य के बीच अंतर स्पष्ट नहीं था। कुछ अपराध ऐसे भी होते थे जो बिना दुराशय के भी अपराध माने जाते थे, जैसे

1) व्यपहरण (Kidnapping)- भले ही ले जाने वाले का आशय गलत ना हो फिर भी वह अपराधी है।

2) द्विविवाह

3) न्यायालय की अवमानना

4) किसी की मानहानि
ये अपराध कठोर दायित्व या पूर्ण दायित्व से संबंधित है, इसीलिए दुराशय हो या ना हो, अपराध ही माने जाते हैं।

भारतीय विधि में- भारत में आमतौर पर इंग्लिश कॉमन लॉ में प्रचलित दुराशय का सिद्धांत लागू नहीं होता क्योंकि यहां आपराधिक विधि संहिताबद्ध (codified) है। यहां अपराधों को सावधानीपूर्वक परिभाषित किया गया है और जहां कहीं भी दुराशय की जरूरत है उसे परिभाषा में ही स्पष्ट कर दिया गया है। भारतीय न्याय संहिता में दुराशय के स्थान पर कुछ अलग शब्दों का प्रयोग किया गया है। जैसे-

1) स्वेच्छा से (Voluntarily)

2) आशय से (Intentionally)

3) जानबूझकर (Knowingly)

4) धोखे से (Fraudulently)

5) बेईमानी से (Dishonestly)

6) विद्वेषपूर्वक (Maliciously)

7) असावधानी से (Recklessly)

8) उपेक्षा से (Negligently)

9) भ्रष्टतापूर्वक (Malignantly)

10) दूषित रीति से ( Corruptly)

दुराशय से संबंधित मामले-

केस- आर बनाम प्रिंस (1875)- इस मामले में अभियुक्त हेनरी प्रिंस एनीफिलिप्स नामक लड़की को उसके पिता की इच्छा के विरुद्ध ले जाता है। वह उसे 16 वर्ष से अधिक समझता है जबकि उसकी आयु 14 वर्ष से ज्यादा थी। न्यायाधीश ब्लैकबर्न ने कहा कि इस मामले में कॉमन लॉ का यह नियम लागू नहीं होता कि बिना दुराशय के दंडित नहीं किया जा सकता। उसे दोषी ठहराया गया।

केस- क्वीन बनाम टॉल्सन (1889)- इस मामले में टॉल्सन नामक व्यक्ति का विवाह अभियुक्ता के साथ 11 सितंबर 1880 को हुआ। 13 दिसंबर 1881 को वह घर से चला गया। उसके बड़े भाई ने सूचना दी कि वह अमेरिका जाने वाले जहाज से गया था। जहाज पानी में डूब गया। तब 10 जनवरी 1887 को उसने अपने आप को विधवा मानकर दूसरा विवाह कर लिया। इसके बाद जब वह वापस आया तो उसने अपनी पत्नी पर द्विविवाह का मुकदमा दायर किया। न्यायालय ने कहा कि इस मामले में अभियुक्ता ने सद‌भावपूर्वक विश्वास किया था कि उसके पति की मृत्यु हो गयी है, इसलिए दुराशय के अभाव में वह द्विविवाह की दोषी नहीं है।

केस- शेराज बनाम रुटजेन (1895)- इस मामले में एक व्यक्ति को शराब बेचने का लाइसेंस इस शर्त पर दिया गया था कि वह ड्यूटी पर होने वाले पुलिस कर्मचारियों को शराब नहीं बचेगा। एक दिन एक सिपाही उसके घर आया और शराब परोसने को कहा। सिपाही ने उस समय अपनी आर्मप्लेट उतार रखी थी। उसने सदभावपूर्वक यह विश्वास करके कि अब वह ड्यूटी पर नहीं है उसे शराब परोस दी। न्यायाधीश राइट ने कहा कि इस मामले में सदभावपूर्वक विश्वास किया था, इसलिए दुराशय के अभाव में उसे दंडित नहीं किया जा सकता।

केस- काम बनाम प्रेस्वी– इस मामले में प्रेस्वी जो एक पुलिस अधिकारी था, एक व्यक्ति हरफोर्ड को जो एक सार्वजनिक स्थान में नशे में था, उसे बंदी बना लेता है। जबकि वह नशे में नहीं था। वह किसी कारण से बेहोश हो गया था। उसके दोस्त ने उसे कोई दवाई दी लेकिन वह होश में नही आया। उसका मित्र डॉक्टर लेने चला गया। पुलिस में उसे नशे में समझा। हॉर जज ने कहा कि हालांकि नशे का निर्धारण करना आसान है लेकिन पूरी निश्चितता नहीं है, यहाँ ऐसे मामले में प्रतिवादी से गलती हो ही जाती है।

केस- महाराष्ट्र राज्य बनाम एम एच जॉर्ज- इस मामले में अभियुक्त एम एच जॉर्ज स्विट्‌जरलैंड वायुयान से मनीला की यात्रा पर था। जब जहाज मुंबई हवाई अड्डे पर उतरा तो उसके सामान की खोजबीन करने पर पता चला कि उसके पास 34 किलो सोने की सिल्लियाँ है, लेकिन उसने यह नही बताया था। भारतीय रिजर्व बैंक में विज्ञप्ति जारी करके कहा कि जो कोई जहाज में सोना लाएगा उसे अपने घोषणापत्र में यह घोषित करना होगा। उसे विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम 1947 की धारा 8 (1) में सोना लाने के लिए अभियोजित किया और दंडित किया गया। लेकिन बम्बई उच्च न्यायालय ने कहा कि दुराशय अपराध का जरूरी तत्व है वह दोषी नहीं है, क्योंकि उस समय तक उसे ज्ञान नहीं था कि सोने के यातायात पर इस प्रकार की शर्त लगा दी है।

उच्चतम न्यायालय के जस्टिस सुब्बाराव ने उसे दोषी ठहराया। कहा कि कॉमन लॉ में दुराशय भले ही एक आवश्यक तत्व होता है, लेकिन कुछ अधिनियम पूर्ण दायित्व के सिद्धांत (Absolute Liability) पर आधारित होते हैं इसलिए उसे इस बात की जानकारी होनी चाहिए थी ऐसा कानून बन गया है। ऐसा कानून जनता की भलाई के लिए है इसलिए इसमें दुराशय महत्वहीन है।

दुराशय के अपवाद:-

कठोर दायित्व और पूर्ण दायित्व (Strict liability and Absolute liability)- सामान्य रूप से किसी अपराध को गठित करने के लिए दोषी मस्तिष्क का होना जरूरी है, लेकिन कुछ ऐसे अपराध भी है जिनमें अभियुक्त की तरफ से किसी अपराध के कानूनी दोष की जरूरत नहीं पड़ती। ये ऐसे अपराध है जिनमें दुराशय की जरूरत को मना कर दिया गया है। ऐसे अपराध को कठोर दायित्व या पूर्ण दायित्व के अपराध कहा जाता है।

इंग्लैंड के कॉमन लॉ में मनःस्थिति के तीन मान्यता प्राप्त सिद्धांत है-

1) लोक उपताप (Public Nuisance)

2) अपराधिक अपलेख (Defamation)

3) न्यायालय की अवमानना (Contempt of court)

1) लोक उपताप– लोक उपताप में दुराशय महत्वहीन है। भारतीय न्याय संहिता की धारा 270 में इसकी परिभाषा दी गई है और धारा 292 में दण्ड का प्रावधान है।

2) अपराधिक अपलेख– मानहानि के मामले में यदि किसी समाचारपत्र में कोई व्यक्ति किसी के संबंध में अपमान लेख छापता है तो उसका मालिक भी दोषी होगा। यह कठोर दायित्व का मामला तो बनता है। भारतीय न्याय संहिता धारा 356 (1) मानहानि को परिभाषित करती है और धारा 356 (2) में इसका दण्ड दिया गया है।

3) न्यायालय के अवमानना:- न्यायालय की अवमानना का मामला भी बिना दुराशय के दंडनीय है, भले ही अवमानना करने वाले का आशय सदभावपूर्ण हो तब भी वह न्यायालय की अवमानना का दोषी होगा। न्यायालय की अवमानना अधिनियम 1971 में वह 6 माह के कारावास या जुर्माना या दोनों का दोषी होगा।

भारत में इन मामलों को भी कठोर और पूर्ण दायित्व में रखा गया है-

1) व्यपहरण– यदि कोई व्यक्ति किसी 16 वर्ष से कम आयु के नर को और 18 वर्ष से कम आयु की नारी या पागल व्यक्ति को अपने साथ ले जाता है भले ही ले जाने वाले व्यक्ति का कोई दुराशय न हो तब भी वह व्यपहरण का दोषी होगा। इंग्लैंड में आर बनाम प्रिंस के वाद में उसे दोषी ठहराया गया। भारतीय न्याय संहिता की धारा 137 में ऐसा व्यक्ति दोषी होता है।

2) द्विविवाह – भारतीय न्याय संहिता की धारा 82 में द्विविवाह को दण्डनीय बनाती है। इस अपराध को करने वाला भले ही उसने कृत्य पहले विवाह वाले व्यक्ति की सहमति से ही किया हो वह द्विविवाह का दोषी होगा।

Leave a Comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *