असावधानी अर्थात् उपेक्षा को अनवधानता एवं लापरवाही के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है।
परिभाषा-असावधानी (उपेक्षा) को कई तरह से परिभाषित किया गया है।
विनफील्ड के अनुसार “उपेक्षा एक अपकृत्य के रूप में सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन है जिसके परिणामस्वरूप प्रतिवादी के न चाहने पर भी वादी को क्षति कारित होती है।”)
सॉमण्ड (Salmond) के अनुसार “उपेक्षा में जहाँ सावधानी बरतना विधि द्वारा अपेक्षित होता है, सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया जाता है।
“लार्ड राइट के अनुसार “उपेक्षा किसी कार्य को करने या करने से प्रतिविरत रहने वाला एक लापरवाही युक्त आचरण है जो किसी कर्तव्य का भंग करता है और जिससे अन्य व्यक्ति को क्षति कारित होती है।” (एल.आई. एण्ड सी.क. बनाम एम.मूलन, 1934 ए.सी. 1))
लार्ड बी. एल्डरसन के अनुसार-“उपेक्षा से अभिप्राय है- ऐसे कार्य से प्रतिविरत रहना या उसका लोप करना जिसे युक्तियुक्त व्यक्ति मानवीय कृत्यों को जो विचार सामान्यतया नियंत्रित करते है से मार्ग दर्शित होकर करता है अथवा ऐसा कोई कार्य करना है जिसे कोई प्रज्ञावान या युक्तियुक्त व्यक्ति नहीं करता है।” [ब्लिथ बनाम बिरमिंघम वाटर वर्क्स क. (1856) 11 एक्स. 781]
सरलतम शब्दों में हम कह सकते हैं कि “जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति सावधानी बरतने के विधिक कर्त्तव्य का उल्लंघन करता है जिसके परिणामस्वरूप उस दूसरे व्यक्ति को क्षति कारित होती है तो, उसे उपेक्षा कहा जाता है एवं ऐसा व्यक्ति उपेक्षा के अपकृत्य के अधीन दायी होता है।
“Negligence as a tort, is the breach of legal duty to take care which results in damage undesired by the defendant to the plaintiff”
उपेक्षा के आवश्यक तत्व :- उपरोक्त परिभाषाओं से उपेक्षा के निम्नांकित तत्व स्पष्ट होते है-
(i) वादी के प्रति प्रतिवादी का सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य होना;
(ii) प्रतिवादी द्वारा ऐसे कर्तव्य का उल्लंघन किया जाना; एवं
(iii) ऐसे उल्लंघन से वादी को क्षति कारित होना।
‘जेकब मेथ्यू बनाम स्टेट ऑफ पंजाब’ (ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 3180) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा असावधानी (Negligence) के तीन आवश्यक तत्व बताये गये हैं—
(क) कर्तव्य,
(ख) कर्तव्य का भंग किया जाना, तथा
(ग) ऐसे कर्तव्य भंग से क्षति कारित होना।
व्यावसायिक मामलों में सामान्य भिन्नता आ जाना असावधानी नहीं है। चिकित्सा अधिकारी यदि चिकित्सा में एक पद्धति को अपनाता है तो उसे इस आधार पर लापरवाह नहीं माना जा सकता कि उसे कोई अन्य पद्धति अपनानी चाहिये थी।
(1) वादी के प्रति प्रतिवादी का सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य होना- उपेक्षा अर्थात असावधानी का पहला आवश्यक तत्व है- प्रतिवादी का वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य होना। पोलक का कहना है कि यदि सावधानी वरतने का कोई विधिक कर्तव्य नहीं है तो उपेक्षा के लिए कार्यवाही नहीं की जा सकती ‘है। उपेक्षा तब तक अनुयोज्य नहीं होती जब तक सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य नहीं हो।
,’मध्यप्रदेश रोड़ ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन बनाम बसन्ती बाई’ (1971 एम.पी.एल.जे. 706) के मामले में भी यह कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उपेक्षा के लिए उत्तरदायी ठहराने हेतु सावधानी बरतने के किसी विधिक कर्त्तव्य का अस्तित्व में होना आवश्यक है।
प्रतिवादी का वादी के प्रति सावधानी बरतने का कोई विधिक कर्त्तव्य है या नहीं, इसका विनिश्चय वादी को कारित होने वाली क्षति के युक्तियुक्त पूर्वानुमान के आधार पर किया जाता है। यदि कोई कार्य करते समय प्रतिवादी यह पूर्वानुमान कर सकता था कि वादी के प्रति प्रतिवादी का सावधानी बरतने का कर्तव्य था। प्रतिवादी से यह अपेक्षा की जाती है कि वह वादी को ऐसी क्षति से बचाने का प्रयास करें। यदि वह ऐसा करने में असफल रहता है तो उसे वादी के प्रति उत्तरदायी माना जायेगा।
डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन का मामला :- इसी विषय पर ‘डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन‘ (1932 ए.सी.562) का एक विख्यात मामला है। इस मामले में 26 अगस्त 1928 को वादी ने प्रतिवादी द्वारा निर्मित झिंझर बीयर की एक बोतल का सेवन किया था।वादी को यह बोतल उसके एक मित्र द्वारा दी गई थी। उस मित्र ने यह बोतल एक खुदरा व्यापारी से खरीदी थी। बोतल पारदर्शी नहीं थी तथा धातु के ढक्कन से बंद थी। वादी उस बोतल में भरी बीयर में से कुछ बीयर पी चुकी थी। जब शेष बीयर उसके मित्र द्वारा गिलास में डाली गई तो उसमें एक विकृत घोंघा तैरने लगा ।वादी उस बीयर को पीने के बाद बीमार पड़ गई। उसने बीयर निर्माता के विरुद्ध उपेक्षा के लिए नुकसानी का वाद दायर किया। न्यायालय ने प्रतिवादी को उपेक्षा का दोषी मानते हुए उसे नुकसानी के लिए उत्तरदायी ठहराया।निर्णय सुनाते हुए लार्ड एटकिन ने कहा- प्रतिवादी का यह विधिक कर्तव्य था कि वह यह देखे कि बोतल में विषैले पदार्थ न जाने पाये। यदि वह अपने इस विधिक कर्तव्य का उल्लंघन करता है तो वह उसके लिए उत्तरदायी होगा। खाद्य एवं पेय पदार्थों, औषधियों तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुओं को ऐसी खराबीयों से मुक्त रखे जिनसे ग्राहकों के स्वास्थ्य को हानि कारित होने की संभावना हो। यह कर्तव्य उस समय और अधिक प्रबल हो जाता है जब वस्तुएं ऐसी अवस्था में बेची जाती है जिनमें क्रेताओं को परीक्षण द्वारा उनमें निहित खराबियों का पता लगाने का अवसर नहीं मिलता है।
‘जौनपुर नगर निगम बनाम ब्रह्मकिशोर’ (ए.आई.आर. 1978 इलाहाबाद 168) के मामले में वादी सांयकाल के समय साइकिल से अपने घर जा रहा था। रास्ते में सड़क पर गड्डा होने से वह उसमें गिर कर क्षतिग्रस्त हो गया। वह गला सड़क की मरम्मत कर रहे नगर निगम के कर्मचारियों द्वारा खोदा गया था। गढ्ढे के पास न तो कोई चेतावनी संकेत था और न ही जनसाधारण को इसकी सूचना दी गई थी। न्यायालय ने नगर निगम को नुकसानी के लिए उत्तरदायी ठहराया क्योंकि उसके द्वारा वादी के प्रति अपने विधिक कर्त्तव्यों का उल्लंघन किया गया था।
चिकित्सीय लापरवाही (Medical negligency) के ऐसे अनेक मामले आजकल प्रकाश में आने लगे है। ‘आर. पी. शर्मा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान’ (ए.आई.आर. 2002राजस्थान 104) के मामले में रोगी को गलत ग्रुप का रक्त चढ़ा देने से रोगी की मृत्यु हो गई थी। इसे चिकित्सकों की लापरवाही माना गया क्योंकि उनके द्वारा रोगी के प्रति अपेक्षित सावधानी नहीं बरती गई थी।
ऐसा ही एक और मामला ‘श्रीमति भोली देवी बनाम स्टेट ऑफ जम्मू एण्ड कश्मीर’ (ए.आई.आर.2002 जम्मू एण्ड कश्मीर 65) का है जिसमें मांसपेशियों में लगाये जाने वाले इंजेक्शन को नाड़ी में लगा देने से रोगी की मृत्यु हो गई थी। न्यायालय ने इसे सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य के उल्लंघन का मामला माना और चिकित्सकों को इसके लिए उत्तरदायी ठहराया।
‘महावीर हॉस्पीटल एण्ड रिसर्च सेन्टर बनाम अल्लादि सुवर्नाम्माँ’ (ए.आई. आर. 2005 एन.ओ.सी. 556 आंध्रप्रदेश) के मामले में एक शल्य चिकित्सा में चिकित्सक की लापरवाही नहीं मानकर हॉस्पीटल की लापरवाही मानी गई जिसके द्वारा घटिया उपकरणों का उपयोग किया गया जिससे वादी को क्षति कारित हुई। हॉस्पीटल द्वारा समुचित सावधानी नहीं बरती गई।
‘सौभागमल जैन बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान’ (ए.आई. आर. 2006 राजस्थान 66) के मामले में बालक के जन्म के बाद महिला को पीड़ा हुई और उसकी मृत्यु हो गई। यह पाया गया कि प्रसव के बाद महिला पर ध्यान नहीं दिया गया तथा चिकित्सकों की लापरवाही से महिला का काफी खून बहा। न्यायालय ने असावधानी के लिए चिकित्सकों एवं राज्य दोनों को उत्तरदायी माना।
‘श्रीमती सोनिया बाई रामस्वरूप मोर्य बनाम डॉ. प्रमोद शर्मा’ (ए.आई.आर 2012 मध्यप्रदेश 21) के मामले में रोगी को पेट दर्द की शिकायत थी। उसे हॉस्पीटल में भर्ती करके अपेन्डिक्स का ऑपरेशन कर दिया गया। उसे हॉस्पीटल से छुट्टी दे दी गई। दूसरे दिन उसकी हालत गम्भीर हो गई। उसे पीलिया भी था। जांच पर यह पाया गया कि चिकित्सकों की लापरवाही से रोगी की मृत्यु हो गई थी। मृतक के आश्रितों को प्रतिकर पाने का हकदार माना गया।
स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़ बनाम गजेन्द्र सिंह (ए.आई.आर. 2015 छत्तीसगढ़ 132) के मामले में मृतक का ट्यूबेक्टोमी ऑपरेशन किया गया था। दवाईयों की प्रतिक्रिया से उसकी मृत्यु हो गई। यह ऑपरेशन राज्य द्वारा आयोजित शिविर में किया गया था। जाँच में चिकित्सकों की लापरवाही पाई गई। राज्य को भी उत्तरदायी ठहराया गया।ऐसे और भी अनेक मामले है जिनमें यह अभिनिर्धारित किया गया है कि उपेक्षा के मामलों में यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी का वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सावधानी बरतने का नैतिक कर्तव्य उपेक्षा के दायित्व का उद्भव नहीं करता। कर्त्तव्य का विधिक होना आवश्यक है।
(2) प्रतिवादी द्वारा ऐसे कर्त्तव्य का उल्लंघन किया जाना :-उपेक्षा का दूसरा आवश्यक तत्व प्रतिवादी द्वारा अपने विधिक कर्त्तव्य का उल्लंघन किया जाना है।कर्तव्य के उल्लंघन अथवा कर्त्तव्य भंग (Breach of duty) से अभिप्राय है- सम्यक् सावधानी का अनुपालन न करना जो किसी परिस्थिति विशेष में बरतनी आवश्यक है। कर्तव्य भंग की कसौटी क्या है; इस प्रश्न का विनिश्चय प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। सामान्यतयाः इसकी कसौटी किसी विवेकशील अथवा प्रज्ञावान व्यक्ति द्वारा बरती जाने वाली सावधानी है अर्थात् सावधानी का स्तर वहीं है जो एक प्रज्ञावान अथवा विवेकशील व्यक्ति परिस्थिति-विशेष में बरतता है। [ब्लिथ बनाम बिरमिंघम वाटर वर्क्स क. (1856) 11 एक्स 781]
उदाहरणस्वरूप हम ‘विश्वनाथ गुप्त बनाम मुन्ना’ (निर्णय पत्रिका 1971 मध्य प्रदेश 365) का मामला ले सकते है। इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वाहन चालक का यह कर्तव्य है कि वह सड़क पर पैदल चलने वाले व्यक्तियों के प्रति पूर्ण सावधानी एवं सर्तकता बरते। उसका यह कर्त्तव्य उस समय और अधिक बढ़ जाता है जब सड़क पर लने वाले व्यक्ति बच्चे हो। ऐसी स्थिति में चालक को वाहन ऐसी गति से चलाना चाहिये – आवश्यकता पड़ने पर उसे रोका जा सकें।
‘चम्पालाल बनाम वेंकटरमन’ (ए.आई.आर. 1966 मद्रास466) के मामले में यही अभिनिर्धारित किया गया है।
ग्लास्गो कॉरपोरेशन बनाम टेलर’ [(1922)1 ए सी 44] का मामला इस विषय पर और अच्छा प्रकाश डालता है। इसमें निगम के नियंत्रण वाले एक उद्यान में विषैले फल उगे हुए थे। वे फल चैरी जैसे दीखते थे जिसमे बच्चे उनकी ओर आकर्षित हो जाते थे। एक बार एक सात वर्षीय बालक ने उस फल को खा लिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई। इसके लिए प्रतिवादी को उपेक्षा का दोषी ठहराया गया क्योंकि वहाँ न तो फल के चारों ओर बाड़ लगाई गई थी और न ही यह चेतावनी संकेत था कि फल विषैले है। यह प्रतिवादी का कर्तव्य-भंग था।
लेकिन ‘बोल्टन बनाम स्टोन’ (1951 ए सी850) का मामला एक ऐसा मामला है जिसमें क्षति की सम्भाव्यता उत्यन्त कम होने से प्रतिवादी को उपेक्षा का दोषी नहीं माना गया। इसमें वादी एक क्रिकेट स्थल के निकट राजमार्ग पर खड़ा था। एक बल्लेबाज ने गेंद में ऐसी ठोकर मारी की वह क्रिकेट स्थल की बाड़ से 7 फीट और पिच से 17 फीट ऊंची उठकर 110 गज दूर खड़े वादी को जा लगी जिससे वह क्षतिग्रस्त हो गया। यह स्थल लगभग 90 वर्षों से क्रिकेट के लिए प्रयुक्त हो रहा था लेकिन किसी व्यक्ति को कभी कोई क्षति कारित नहीं हुई। लार्ड सभा द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि सड़क पर व्यक्तियों की क्षति की सम्भाव्यता इतनी कम थी कि इसके लिए क्रिकेट क्लब को उपेक्षा का दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
(3) वादी को क्षति कारित होना :- उपेक्षा की तीसरा आवश्यक तत्व प्रतिवादी के कर्तव्य-भंग से वादी को क्षति कारित होना है। ऐसी क्षति प्रतिवादी के कार्य प्रत्यक्ष परिणाम होनी चाहिये, दूरवर्ती नहीं।
‘हेतलबेन जितेन्द्रकुमार व्यास बनाम पुलिस इन्सपेक्टर साबरमती पुलिस स्टेशन’ (ए.आई.आर. 2006 गुजरात 97) के मामले में एक वैवाहिक जुलूस निकल रहा था। उसमें की जा रही आतिशबाजी से एक ढाई वर्षीय बच्चे की आँख क्षतिग्रस्त हो गई। न्यायालय ने वर-वधू के अभिभावकों को असावधानी का दोषी ठहराते हुए उन्हें प्रतिकर का संदाय करने का आदेश दिया।
फिर प्रतिवादी की उपेक्षा के कारण कारित क्षति को साबित करने का भार वादी पर होता है। वादी को मात्र यह साबित करना होता है कि क्षति में प्रतिवादी के कार्य की सारवान् भागीदारी रही है। अभिप्राय यह हुआ है कि वादी के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक नहीं है कि क्षति का सम्पूर्ण कारण प्रतिवादी का कार्य रहा है।
इस सम्बन्ध में ‘मकधी बनाम नेशनल कोल बोर्ड’ [(1972)3 ऑलरि.1008] का एक अच्छा प्रकरण है। इसमें अपीलार्थी प्रत्यर्थी के यहाँ ईटों के निर्माण का कार्य करता था। वह एक साधारण श्रमिक था। 30 मार्च 1967 को उसे ईटों के बक्सों को खाली करने का कार्य सौंपा गया। जहाँ वह काम करता था वहाँ भयंकर गर्मी व धूल थी। कुछ दिनों बाद उसे अपनी त्वचा में जलन का आभास हुआ। वह चिकित्सक के पास गया। चिकित्सक ने त्वचा की जलन के दो कारण बताये-
(i) वादी का कार्य ही रोग का कारण हो सकता है; अथवा
(ii) कार्य के बाद बिना स्नान किये साईकिल पर जाना इसका कारण हो सकता है।
जब यह मामला न्यायालय में गया तो यह अभिनिर्धारित किया गया कि हो सकता है कि वादी के रोग का कारण पहला नहीं रहकर दूसरा रहा हो लेकिन यह पता लगाने का कार्य प्रतिवादी का था। प्रतिवादी ने अपने कर्तव्य का उल्लंघन किया है।इस प्रकार असावधानी (उपेक्षा) के मामले में वादी को उपरोक्त तीनों बातों को साबित करना होता है और वस्तुतः यही उपेक्षा के आवश्यक तत्व है।