:- हिन्दू संस्कृति में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना जाता रहा है। पति-पत्नी के सम्बन्धों को जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध माना गया है। एक बार विवाह में बंध जाने पर उसका विच्छेद आसानी से नहीं हो सकता। दोनों को आजीवन एक-दूसरे का साथ निभाना पड़ता है। यही कारण है कि पत्नी को अर्द्धांगिनी कहा गया..है।
:-हिन्दू धर्मशास्त्रों में पति-पत्नी के अनेक पर्यायवाची शब्द हैं। पति को ‘भर्तार’ कहा गया है क्योंकि वह अपनी पत्नी का भरणपोषण करता है, उसे ‘पति’ कहा गया है क्योंकि वह पत्नी का रक्षक है, उसे ‘स्वामी’ कहा गया है क्योंकि पत्नी उसके अधीन है। पति को ‘परमेश्वर’ कहा गया है क्योंकि पत्नी का सबसे बड़ा धर्म है- पति सेवा। इसी प्रकार पत्नी को जाया कहा गया है क्योंकि पति द्वारा उसी के माध्यम से सन्तान की उत्पति की जाती है। पत्नी को ‘लक्ष्मी’ कहा गया है। पत्नी अद्धांगनी है, पति का आधा भाग है पत्नी पति की सर्वोत्तम मित्र है, यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मार्ग है।
:-इस प्रकार धर्मशास्त्रों के अनुसार हिन्दू विवाह एक संस्कार है, एक पवित्र बन्धन है, एक दैवी बन्धन है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए विवाह आवश्यक है, न केवल सन्तान उत्पत्ति के लिए, अपितु धार्मिक और आध्यात्मिक कर्तव्यों के पालन एवं पिता के ऋण से उऋण होने के लिए भी। लेकिन हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 पारित होने के पश्चात् इस स्थिति में थोड़ा परिवर्तन आया है विधिमान्य विवाह के लिए अब कुछ शर्तें ऐसी रख दी गई हैं जो उसे एक अनुबन्ध का रूप दे देती हैं, जैसे-
(i) विवाह के पक्षकारों का वयस्क होना अर्थात् वर का 21 वर्ष एवं वधू का 18 वर्ष से कम आयु का नहीं होना,
(ii) विवाह में के दोनों पक्षकारों का स्वस्थचित होना,
(iii) विवाह-विच्छेद के प्रावधान कर दिया जाना,
(iv) सप्तपदी आदि का आवश्यक नहीं होना, आदि।
लेकिन हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अब भी कुछ उपबन्ध ऐसे हैं। जो हिन्दू विवाह को एक पवित्र संस्कार का स्वरूप प्रदान किये हुए हैं, जैसे-
(1) अवयस्क पक्षकारों के विवाह को शून्य या शून्यकरणीय नहीं माना जाना,
(ii) अस्वस्थचित्तता को शून्य विवाह का आधार नहीं मानकर शून्यकरणीय विवाह का आधार माना जाना,
(iii) विवाह विच्छेद की विधि एवं प्रकिया का आसान नहीं होना,
(iv) जहाँ सप्तपदी आवश्यक हो, वहाँ उसे पूर्ण किया जाना,
(v) विवाह में जातिगत रूढ़ियों एवं प्रथाओं को मान्यता प्रदान किया जाना
(vi) सपिण्ड एवं प्रतिषिद्ध नातेदारी के भीतर विवाह नहीं किया जा सकना आदि।
:-इस प्रकार वर्तमान परिवेश में हिन्दू विवाह का स्वरूप न तो पूर्ण रूप से ‘संस्कार’ रह गया है और न ही ‘अनुबन्ध’ यह दोनों का उद्भुत मिश्रण है। इसमें दोनों के तत्त्व पाये है। डॉ. पारस दीवान ने अपनी कृति ‘आधुनिक हिन्दू विधि की रूपरेखा’ (2002 संस्करण, पृष्ठ 40 ) में कहा है-“हिन्दू विवाह न ही संस्कार रहा है और न ही अनुबन्ध, इसमें दोनों का आभास होता है।
:-“वैध हिन्दू विवाह की अनिवार्य शर्तें – हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 में वैधू विवाह की अनिवार्य शर्तों का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार वैध विवाह के लिए निम्नांकित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है-
(i) विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से, यथास्थिति, किसी के जीवित पति या पत्नी का नहीं होना’
:-इस सम्बन्ध में ‘देवीराम बनाम गंगावा’ (ए.आई.आर. 2006 एन.ओ.सी. 535 कर्नाटक) का एक अच्छा मामला है। इसमें एक मृतक समोसिन का ‘सी’ के साथ विवाह हुआ था। बाद में ‘सी’ ने प्रतिवादी से विवाह कर लिया। प्रतिवादी का यह कहना था कि यह विवाह विधिमान्य है, क्योंकि वादिया ने संसार त्याग कर संन्यास धारण कर लिया था। लेकिन न्यायालय द्वारा इसे विधिमान्य विवाह नहीं माना गया, क्योंकि पूर्व विवाह का विधिमान्य रीति से विघटन नहीं हुआ था।
:-यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यदि अनुसूचित जनजाति में प्रथा एवं रीति रिवाजों के अनुसार बहुविवाह मान्य है तो ऐसी दशा में रूढ़ि एवं प्रथाओं को सर्वोपरि माना जायेगा (डॉ. सूरजमणि बनाम दुर्गाचरण, ए.आई.आर. 2001 एस. सो. 938)
(ii) विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से किसी पक्षकार का विकृत चिन मानसिक विकार से पीडित अथवा उन्मत नहीं होना,
(iii) विवाह के समय वर का 21 एवं वधू का 18 वर्ष से कम आयु कानहीं होना,
(iv) जब तक दोनों पक्षकारों में से हर एक को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा से उन दोनों के बीच विवाह अनुज्ञात न हो, उनका प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियों के भीतर न होना एवं
(v) जब तक दोनों पक्षकारों में से हर एक को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा से उन दोनों के बीच विवाह अनुज्ञात न हो, उनका एक-दूसरे से सपिण्ड न होना।
सुरेन्द्र भाटिया बनाम पूनम भाटिया’ (ए.आई. आर. 2006 राजस्थान 128) के मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया के कि मुस्लिम महिला किसी हिन्दू पुरुष के साथ विवाह कर सकती है। ऐसा विवाह विधि मान्य होगा। इसी प्रकार ऐसी मुस्लिम महिला की पुत्री का भी हिन्दू पुरुष के साथ विधितया विवाह हो सकता है।
:-अधिनियम की धारा 7 में वैध हिन्दू विवाह की एक और शर्त का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार विवाह का रूढिगत रीतियों एवं कर्मकाण्डों के अनुसार अनुष्ठापित किया जाना आवश्यक है। जहाँ ‘सप्तपदी’ आवश्यक हो, वहाँ सप्तपदी का पूरा किया जाना अनिवार्य हैं। ‘सुरजीत कौर बनाम गरजासिंह’ (ए.आई.आर. 1994 एस. सी. 193) के मामले में भी इस बात की पुष्टि की गई है। लेकिन ‘नीलब्बा सोमनाथ तारापुर बनाम डिविजनल कन्ट्रोलर, के.एस.आर.टी.सी. बीजापुर’ (ए.आई. आर. 2002 कर्नाटक 347) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है। कि जहाँ कर्मकाण्ड और रीति-रिवाज के अन्तर्गत सप्तपदी आवश्यक न हो, वहाँ सप्तपदी के बिना अनुष्ठापित विवाह भी मान्य होगा।
:-सचितानन्द बनाम श्रीमती त्रिवेणी बाई (ए.आई. आर. 2016 छतीसगढ़60) के मामले में पति व पत्नी के बीच विवाह होने की उपधारणा की गई, क्योंकि वे दोनों लगभग 15 से 20 वर्षों से एक-साथ पति-पत्नी के रूप में रह रहे थे। साक्ष्य द्वारा इस तथ्य की पुष्टि भी हो गई।
अधिनियम की धारा 8 के अन्तर्गत विवाह के रजिस्ट्रीकरण के बारे में प्रावधान किया गया है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है, यद्यपि ‘कंगावली बनाम सरोज'(ए.आई.आर. 2002 मदास 73) के मामले में विवाह के रजिस्ट्रीकरण को आवश्यक बनाये जाने की अनुशंसा की गई है।|
:- श्रीमति सीमा बनाम अश्विनी कुमार (ए.आई.आर. 2006 एस.सी. 1158) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा भी विवाह के अनिवार्य रजिस्ट्रीकरण की अनुशंसा की गई है। इसमें उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि प्रत्येक राज्य में विवाहों के रजिस्ट्रीकरण को अनिवार्य किया जाना चाहिए। )
:-उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कोई विवाह केवल तभी वैध विवाह माना जा सकेगा जब वह उपरोक्त सभी आवश्यक शर्तों को पूरा करता हो।
:-जहाँ तक एक पति या पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह नहीं किये जाने का प्रश्न है तो ‘रामप्यारी बनाम धर्मदास’ (ए.आई.आर. 1984 इलाहाबाद 147) के मामले में यह कहा गया है कि एक पति या पत्नी के जीवित रहते कोई भी पक्षकार दूसरा विवाह नहीं कर सकता है और यदि करता है तो वह शून्य होगा।यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पहले वैध विवाह की दूसरा शर्त में शब्द ‘मिरगी’ (Epilepsy) भी सम्मिलित था लेकिन कालान्तर में वैवाहिक विधियाँ (संशोधन) अधिनियम, 1999 द्वारा इसे विलोपित कर दिया गया।
शर्तों के उल्लंघन का प्रभाव-यदि वैध विवाह की अनिवार्य शर्तों का,उल्लंघन किया जाता है तो उसके निम्नांकित प्रभाव होंगे-
(1) निम्नांकित परिस्थितियों में या शर्तों का उल्लंघन कर किया गया विवाह शून्य (void) होगा–
(i) जब विवाह के समय, यथास्थिति, किसी पक्षकार का पति या पत्नी जीवित हो,
(ii) जब विवाह में के पक्षकार सपिण्ड सम्बन्धों में आते हों, या
(iii) जब विवाह में के पक्षकार प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियों में आते हों ।
(2) यदि विवाह के समय पक्षकारों में से कोई विकृत चित्त, मानसिक विकार से पीड़ित या उन्मत रहा हो तो ऐसा विवाह शून्यकरणीय (Voidable) माना जायेगा।
(3) यदि विवाह के समय आयु सम्बन्धी अनिवार्य शर्त का उल्लंघन किया जाता है तो वह अधिनियम की धारा 18 के अन्तर्गत दण्डनीय होगा। लेकिन ऐसा विवाह न तो शून्य (void) माना गया है और न ही शून्यकरणीय (Voidable)
:-लापता पक्षकार की अवस्था में दूसरा विवाह किया जाना:-कई बार यह प्रश्न उठता है कि विवाह में के किसी पक्षकार के लापता होने पर क्या दूसरे पक्षकार द्वारा दूसरा विवाह किया जा सकता है? इस सम्बन्ध में हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (1) (vii) अवलोकन योग्य है। इसमें यह प्रावधान किया गया है। कि विवाह में के किसी पक्षकार के जीवित होने या न होने के बारे में ‘सात वर्ष’ या उससे अधिक की कालावधि के भीतर कुछ नहीं सुना गया है तो इस आधार पर विवाह विच्छेद की डिक्री पारित की जा सकेगी ।
:-इस प्रकार उपरोक्त आधार पर सक्षम न्यायालय से विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर दूसरा विवाह किया जा सकता है। वस्तुतः सात वर्ष या अधिक अवधि से लापता व्यक्ति की सिविल मुत्यु हो जाना मान लिया जाता है।
:-आर्य समाज विवाह पद्धति-विगत कुछ वर्षों से आर्य समाज विवाह पद्धति से विवाह किये जाने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी है। ऐसे विवाह आर्य विवाह विधिमान्यकरण अधिनियम, 1937′ के अन्तर्गत मान्य होते हैं।